॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में तुलसी के अनुपम उपदेश – भाग – 3 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
ईश्वर पर जब भक्त अनन्य श्रद्धा और विश्वास रखता है तो सफलता पाता है-
एक भरोसो एकबल, एक आस विश्वास।
स्वाँति बूंद जल पानहित चातक तुलसीदास॥
तुलसीदास जी ने तत्कालीन समाज में जो बुराईयां देखीं उन्हें दूर करने के सांकेतिक रूप से उपदेश दिया है। वे भगवान राम के अनन्य भक्त थे। राम उन के सर्वस्व थे और उनके आचरण के प्रसंगों को लेकर उनने समाज की आंखें खोलने का प्रयास किया। वे सच्चे युग-दृष्टा थे। उन्होंने धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक अनाचारों को दूर करने का भरपूर प्रयास किया है। निश्चय ही लोक कल्याण की दृष्टि से रामचरित मानस से बढक़र हिन्दी में ऐसा कोई ग्रंथ नहीं है जो जीवन की परिधि को घेरकर आदर्श जीवन प्रस्तुत करता हो। मानस विश्व साहित्य का चमकता हीरा है जो मानव जाति को सुखी जीवन का वास्तविक मार्ग दर्शाता है। तुलसीदास जी कवि तो थे ही परन्तु उन से बड़े वे ईश्वर भक्त थे। ईश्वर की भक्ति को प्रधानता देते हुये वे ईश्वर भक्ति को ही जीवन का उद्देश्य मानते हैं। ईश्वर के प्रति श्रद्धा और विश्वास से ही जीवन को सरसता और सफलता प्राप्त होती है।
तीर्थाटन साधन सुमुदाई, जोग विराग ग्यान निपुनाई।
नाना कर्म धर्म व्रत नाना, संजय यम, जप, तप, मख दाना॥
भूतदया द्विज गुरु सेवकाई, विद्या विनय विवेक बड़ाई।
जहँ लगि साधन वेद बखानी, सब कर फल हरि भगति भवानी॥
भक्ति को प्रधानता देते हुये उसी को जीवन की हर समस्या का उपचार बताया है। उसी भक्ति से निराशापूर्ण वातावरण में परिवर्तन संभव है और ईश्वर कृपा से ही जीवन में सकल उपलब्धि संभव है।
अनाचारी शासकों को भी लोकहित में अपना व्यवहार बदलने के लिये उपदेश करते हुये कहा है-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवस नरक अधिकारी॥
श्री राम को आदर्श राजा प्रतिपादित करते हुये उनके शासन में प्रजा को सब प्रकार की सुख-शांति और सुविधाओं का उल्लेख करते हुये वे कहते हैं-
दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज्य काहुहि नहिं व्यापा।
विधु महि पूर मयूखन्हि रवितप जेतनेहि काज।
माँगे वारिद देहिं जल रामचन्द्र के राज॥
किसी भी राज्य में ऐसी सुन्दर स्थिति का निर्माण सुयोग्य राजा के न्यायप्रिय शासन के द्वारा और राजा के चारित्रिक और धार्मिक उच्च आदर्श होने पर ही हो सकती है परन्तु यह भी परम आवश्यक है कि प्रजा सदाचारी, नियमों का पालन करने वाली, अनुशासन में रहते हुये धर्मनिष्ठ, कर्मनिष्ठ और कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार भी हो। आज के भारतीय परिप्रेक्ष्य में यदि देश को एक योग्य सुशासक की आवश्यकता है तो यह भी उतना ही आवश्यक है। देशवासी आपस में हिल-मिलकर रहें, उच्च आदर्शों का पालन करें और कर्तव्य के प्रति समर्पित हों, रामचरितमानस यही शिक्षा देती है।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈