॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में लोकोत्तियां – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
अयोध्याकाण्ड
चोरहिं चांदनी रात न भावा
ऊँच निवास, नीच करतूती, देखि न सकहिं पराई विभूति।
कोउ नृप होऊ हमहिं का हानी, चेरी छाडि़ न होउब रानी।
हित अनहित पशु-पक्षिहु जाना
नहि असत्य सम पातक पुंजा।
पीपर पात सरिस मन डोला।
भई गति सांप छछूंदर केरी।
पिय वियोग सम दुख जग नाहीं।
जिय बिनु देह नदी बिना बारी, तैसहि नाथ पुरुष बिन नारी।
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।
बैर प्रीति नहिं दुरई दुराये।
सबते सेवक धरम कठोरा।
करम प्रधान विश्व करि राखा जौ जस करई तो तस फल चाखा।
सूझ जुआरिहिं आपन दाऊं।
किष्किंधा काण्ड
जे न मित्र दुख होंहि दुखारी, तिनहिं विलोकत पातक भारी।
सत्रु-मित्र, सुख-दुख जग माहीं-मायाकृत परमारथ नाहीं।
अनुज वधू भगिनी सुत नारी, सुन सठ ये कन्या समचारी।
सुर नर मुनि सबकी यह रीती स्वास्थ्य लागि करहिं सब प्रीती।
सोई गुणज्ञ सोई बड़भागी, जो रघुवीर चरण अनुरागी।
सुन्दरकाण्ड
प्रविसि नगर कीजै सब काजा, हृदय राखि कौशलपुर राजा।
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई, गौपद सिंधु अनल सितलाई।
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताडऩा के अधिकारी।
लंकाकाण्ड
नारी स्वभाव सत्य सब कहहीं, अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈