॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में सूक्तियां – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
अयोध्याकाण्ड
जो गुरु चरण रेनु सिर धरहीं ते जनु सकल विभव बस करहीं।
चारि पदारथ कर तल ताके, प्रिय पितु-मात प्राण सम जाके।
काह न पावक जारि सके, का न समुद्र समाय।
का न करे अबला प्रबल, केहि जग काल न खाय।
गुरु पितु मातु बंधु सुर साई, सेवअहिं सकल प्राण की नाई।
काहु न कोऊ सुख-दुखकर दाता, निज कृत करम भोग सब भ्राता।
धरमु न दूसर सत्य समाना, आगम निगम पुरान बखाना।
बिनु रघुपति पद पदुमपरागा, मोहि केऊ सपनेहु सुखद न लागा।
रामहि केवल प्रेम पियारा, जान लेऊ जो जाननि हारा।
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहऊ निरबान।
जनम-जनम रति रामपद यह बरदानु न आन॥
मुखिया मुख सो चाहिये, खानपान महुं एक।
पालई पोषइ सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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