॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ मृत्योर्मा अमृतमगमय ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
उपनिषद भारतीय मनीषा के अद्वितीय ग्रन्थ हैं। वे मनुष्य को सही जीवन जीने के लिये पोषक रस देते हैं। हर छोटे मंत्र की जब विद्वानों द्वारा व्याख्या की जाती है तो उसके भाव की भव्यता और वृहत उपयोगिता समझ में आती है और दिये गये सूत्र की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’ का अर्थ है- मृत्यु की ओर नहीं अमृता की ओर बढ़ो-अर्थात्ï विनाश नहीं अमरता का वरण करो। कोई काम जीवन में ऐसा मत करो जो विनाश की ओर ले जाने का कारण बने बल्कि ऐसा कुछ करो जो अमरता प्राप्त करने में सहायक हो।
प्रश्न उठता है कि मनुष्य फिर क्या करे जिससे उसे अमरता या ख्याति प्राप्त हो ? मानवता के अनेको गुण हैं जिनका पूर्ण विकास कर मनुष्य ने समाज हित किये हैं और और इतिहास में अमरता प्राप्त की है। सत्यवादिता, सूरवीरता, दानवीरता, जन-सेवा, देश प्रेम जैसे अनेकों गुण हैं जिनकी सदा प्रशंसा होती आई है। अनेकों महापुरुषों ने इन्हें अपनाकर प्रसिद्धि पाई है और इतिहास में अमर हो गये हैं। परन्तु जन साधारण के लिए प्रकृति प्रदत्त एक सहज गुण है प्रेम जिसकी साधना के लिए न तो कोई धन की आवश्यकता है और न कोई कष्ट सहने की।
प्रेम मानव मन की एक सहज प्रवृत्ति है। हर व्यक्ति औरों से प्रेम पाना चाहता है। प्रेम ही व्यक्ति को अनायास खुशी देता है और मधुर मिठास घोल देता है। प्रेम से वन्य दुष्ट प्राणी तक वश में कर लिये जाते हैं। प्रेम ऐसा दिव्य अनमोल रत्न है कि जिस पर उसकी एक किरण पड़ जाती है वह चमक उठता है और आनन्दनुभूति से उसका हृदय भर जाता है। दुनियाँ में ऐसा कौन प्राणी है जो प्रेम की उपेक्षा कर सके। प्रेम पाकर हिंस्र पशु अपना क्रोध और हिंसा छोड़ देते हैं। विषैले प्राणी विष का परित्याग कर देते हैं। दुष्ट दुष्टता से विरत हो जाते हैं। शत्रु भी मित्र बन जाते हैं और पराये अपने हो जाते हैं। महात्मा बुद्ध के स्नेहिल व्यवहार से अंगुलिमाल सरीखे दुष्ट के हृदय परिवर्तन की कथा किसे नहीं ज्ञात हैं। हमारे दैनिक जीवन में प्रेम के व्यवहार की प्रतिक्रिया पशु-पक्षियों तक में तुरंत सहज रूप में दिखाई देती है। फिर यह प्रेम का व्यवहार मानव समाज में हर किसी को सहज आकृष्ट कर समीप लाने में सहायक क्यों न होगा? जिसे इसमें कोई शंका हो तो वह प्रत्यक्ष व्यवहार कर उसका प्रतिउत्तर पाकर अनुभव पा सकता है।
प्रेम तो वह पारस है जो दुष्ट और पापियों को भी उसी प्रकार सज्जन और पवित्र बना देता है जैसे लोहे को पारस सोना बना देता है। हृदय मन्दिर में प्रवेश पाने की कुंजी है प्रेम। प्रेम के आदान-प्रदान में एक पावनता है और अद्ïभुत आनन्द है। प्रेम संसार में ऐसा मंजुल मनोरम भाव है जो निर्मूल्य होते हुए भी अनमोल है। निश्छल प्रेम से द्वेष, कलह, विरक्ति और विषाद को धोकर मनोनुकूल, अनुपम, मोहक वातावरण निर्मित किया जा सकता है। प्रेम सभी मनोभावों का राजा है जो सबको सुरक्षा और सुख-संपदा प्रदान करता है। व्यक्तित्व में परिष्कार करता है और सब गुणों में निखार लाता तथा दुर्गुणों पर प्रहार करता है। प्रेम से स्वहित और समाजहित साधना संभव है। कोई भी समस्या कितनी भी जटिल क्यों न हो, प्रेम और सद्ïभाव उसे सुलझाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इसी से प्रेम को परमात्मा का ही रूप कहा गया है। सच्चे प्रेम से केवल लौकिक सिद्धि ही नहीं परमात्मा को भी प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर की भक्ति प्रेम का ही ऊँचा परिष्कृत भाव है। गंगा की तरह पावन है। प्रेम गंगा में अवगाहन का आनन्द वे ही जानते हैं जिनने निश्छल मन से प्यार करना सीखा है। प्रेम में अद्वैत हैं अपनापन है।
ऐसे उच्च मानवीय गुण को जगाना और उसे पोषित करना विश्वहित के लिए बहुत जरूरी है।
जहाँ प्रेम तहाँ शान्ति है, जहाँ प्रेम तहाँ ज्ञान,
निर्मल प्रेमी हृदय में बसते हैं भगवान॥
विश्व में मनुष्य मात्र की सुख शांति और सद्ïभावना की अमरता के लिये प्रेम की ज्योति को जला कर संजोये रखना कल्याणकारी है। प्रेम ही प्राणियों को अमरता की ओर ले जाता है।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
प्रबल प्रेम के पाले पडकर हरि को नियम बदलते देखा।
खुद का मान भले टल जाए,पर भक्त का मान न करते देखा।(अज्ञात)
प्रेम में जीना प्रेम में मरना,प्रेम में ही मिट जाना।
ढाई आखर प्रेम का मतलब, गौरैया से जाना।
(सूबेदार पाण्डेय कवि आत्मानंद)
लेखक महोदय ने प्रेम के मानवीय गुणों मूल्यों की सरस सरल समीक्षा प्रस्तुत किया है । जिसके लिए हम उनको कोटि कोटि साधुवाद नमन अभिनंदन अभिवादन करते हुए बधाई देते हैं। —–सूबेदार पाण्डेय कवि आत्मानंद