॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ दया धरम का मूल है ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
भारत का वैदिक धर्म जिसे सनातन धर्म की भी संज्ञा दी जाती है, मूलत: प्राकृतित विज्ञान पर आधारित है। यह प्रकृति का उपासक और समस्त मानव जाति का हितरक्षक है। इसकी प्रमुख भावना है-
”सर्वे सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दु:खंमाप्तुयात्’‘
आशय है सभी सुखी हों, सभी स्वस्थ हों, सबका कल्याण हो, किसी को कोई दुख न हो। यह उद्ïदात्त भावना न केवल मानव जाति हेतु ही है वरन सृष्टि के समस्त प्राणियों और वनस्पति जगत के लिये भी है। धर्म का मन्तव्य सुख, शांति, प्रगति और कल्याण ही है।
यह विश्व जिस अज्ञात, अलक्ष्य सर्व शक्तिमान की सृष्टि है उसने यहाँ कुछ भी अकारण नहीं बनाया है। मनुष्य प्राणी वनस्पति सभी इस संसार में एक दूसरे के सहयोगी है, अत: प्राकृतिक क्रिया-कलापों के सुसंचालन हेतु सभी परस्पर पूरक की भूमिका का निर्वाह करते हैं। प्रत्येक की सुरक्षा और सुख हर दूसरे की सुरक्षा पर निर्भर हैं। यह सुरक्षा तभी संभव है जब मनुष्य के मन में सबके लिए रक्षा, दया और उदारता की भावना हो। यदि बारीकी से विचार किया जाय तो इस भूमण्डल में स्वार्थपूर्ति के लिए सबसे अधिक हिंसक प्राणी मनुष्य ही है। यदि मन में दया भाव है तो हिंसा का भाव स्वंय ही तिरोहित हो जाता है और व्यक्ति अपने नैसर्गिक धर्म का सहज ही निर्वहन कर सकता है। इसीलिये कहा गया हैं-
”दया धरम का मूल है, पाप मूल अभिमान,
तुलसी दया न छाँडिय़े जन लगि घट में प्राण॥’‘
जहाँ दया और उदारता की भावना लुप्त होती है, वहीं स्वार्थ भावना पल्लवित होने लगती है और स्वार्थ की पूर्ति के लिए व्यक्ति दूसरों के प्रति असहिष्णु होकर हिंसा करने को उद्धत हो जाता है। धार्मिक भावना की कमी और परिणाम की अदूरदर्शिता के कारण ही आज मनुष्य न केवल अन्य सजातीयों पर हिंसा कर रहा है बल्कि अन्य प्राणियों वनस्पतियों और समस्त सृष्टि के प्रति अनुदार और हिंसक हो गया है। विश्वव्यापी मनोमालिन्यपूर्ण आतंकवाद के बढ़ते चरण, पशुपक्षियों के अवैध शिकार, वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, वनों का विनाश, नदियों का प्रदूषण, भूमि का अनियंत्रित उत्खनन, वायु और गगन का प्रदूषण सब इसी के दुष्परिणाम हैं। इन कारणों से स्वत: मानव-जीवन आये दिन अनेकों कष्ट भुगत रहा है और अपनी अदूरदर्शिता से अपने और सबके भविष्य को नई-नई उलझनों के जाल में फँसाता जा रहा है। दुनियाँ विनाश की कगार पर पहुचती जा रही है।
मन में दया के भाव का उद्ïगम व्यक्ति को हिंसा तथा अन्य विवादों की बुराइयों से रोकता है तथा समता की भावना को पल्लवित कर आनन्द स्नेह और संवेदना को पनपाता है। धर्म का यही उपदेश है कि दूसरों के साथ सदा वैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए जैसा कि व्यक्ति औरों से अपने प्रति किये जाने की चाह रखता है। सबके साथ संवेदना और सहानुभूति एक ऐसे वातावरण को सृजित करते हैं जिसमें आनन्द और मिठास होती है।
यदि इस दृष्टि को रखकर जीवन जिया जाय तो कभी कोई अधर्म या पाप ही न हो। यही तो सबसे बड़ा धर्म है कि परहित में कोई बाधा न हो और सब संयमित रूप से हिल-मिल कर समाज में रह सकें।
महात्मा तुलसीदास जी ने भी रामचरित में यही कहा है-
परहित सरिस धरम नहिं भाई,
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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