॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ सुख और समृद्धि के लिए जरूरी है निष्ठा और नैतिकता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
आज हमारे देश में जो परिदृश्य है वह राष्ट्रहितकारी कम और स्वार्थपूरक अधिक दिखाई देता है। लोग प्राचीन मान्य परम्पराओं और मर्यादायों के प्रति उदासीन हो विभिन्न वर्जनाओं का खुला उल्लंघन कर रहे हैं। बहुतों में न लोकलाज दिख रही है न नियम-कायदों का डर।
देश तो यह वही है जिसने कभी अपने संगठित अनुशासनपूर्ण व्यवहार से आजादी के पूर्व के दिनों को देखा और भोगा है, वे जानते हैं कि तत्कालीन वातावरण में कितनी अनिश्चितता थी और विदेशी शासन के जुल्मों का कितना भय था, किन्तु तब भी देश प्रेमी जनता के मन में कत्र्तव्य के प्रति कितनी निष्ठा, लगन और ईमानदारी थी। समाज में जातीय भेदभाव होते हुए भी आत्मीय, एकता और समन्वय की भावना थी। प्रत्येक छोटे-बड़े को कत्र्तव्य की आत्मप्रेरणा थी और अपने काम को ढंग से पूर्ण गुणवत्ता के साथ निर्धारित अवधि में पूर्ण करने की लगन थी। इसी सामाजिक कत्र्तव्य परायण्ता, कत्र्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी ने एक जुटता से राष्ट्र के लिए प्राणपण से न्यौछावर होने की भावना जगाई थी और मार्ग की अनेकों दुगर्म कठिनाईयों के होते हुए भी हमें स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य को पाने में सफलता मिली थी।
इसके विपरीत आज आजाद देश के नागरिकों के मन में कलुषता, लोलुपता और चरित्रहीनता दिखाई देती है। क्षेत्र चाहे कोई भी हो हर जगह मलिनता व्याप्त है। वातावरण में पवित्रता और व्यवहार में पावनता, निश्छलता और सहज सेवा उपकार की भावना कहीं स्पष्ट दिखाई बहुत कम दिख पाती है। अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार का बोलबाला हो चला है। स्वार्थ की प्रबलता है। संबंधों में अदावट है, क्रिया-कलापों में दिखावट है, रूप में निरर्थक सजावट है, सेवाओं में गिरावट है, विभिन्न उत्पादों में मिलावट है तथा सही प्रगति पथ पर जगह जगह रुकावट है। पुराना भाईचारा, आपसी सम्मान, सद्ïभावना, कत्र्तव्यनिष्ठा और गुणवत्ता बढ़ाने के लिये कुछ सीखने की इच्छा लुप्त सी हो गयी हैं। इसी से वांछित परिणाम नहीं मिल पा रहे। धन का अपव्यय हो रहा है और संकल्पित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पा रही। यह गहन चिन्तन का विषय है कि ऐसा क्यों हो गया ?
लगता है इस सारी बढ़ती बदहाली का मूल कारण हमारे सोच और कार्य-सरणी में बदलाव है। मनुष्य वैसा ही बनता है जैसा वह सोचता है। विचार ही व्यक्ति के व्यावहारों के उद्ïगम हैं। लोकतांत्रिक पद्धति की शासन व्यवस्था में लोगों ने शायद ”स्वातंत्र्य’‘ शब्द का अर्थ ”स्वच्छन्ता’‘ समझ गलत विचार करना शुरु कर दिया है। ‘स्वच्छंदता’ का परिणाम स्वत: के भविष्य के लिए और साथ ही समाज के लिए भी घातक होगा- यह ध्यान में नहीं रखा गया है। दूसरा शायद लोगों ने केवल धन को ही सुख का पर्याय मान लिया है। इसीकारण कम से कम श्रम से थोड़े से थोड़े समय में अधिक से अधिक धन कमा लेने की होड़ लग गई है। कमाई की अंधी दौड़ में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता इससे सही या गलत साधन का भेद भुला दिया गया है। इसी उथली विचार धारा ने सबको संकट में डाल दिया है, व्यक्ति, समाज और शासन सभी परेशान हैं। नई-नई समस्याएँ ‘सुरसा’ के मुख सी बढ़ती जाती हैं।
पहले हमारा आदर्श था-”सादा जीवन, उच्च विचार’‘। आज उल्टा हो गया है-” ऊँचा जीवन, निम्न विचार’‘।
धन सदा ही सुखदायी ही नहीं समस्या उत्पादक भी होता है। अनुचित साधनों से धन की प्राप्ति परिवार में नये संकट ही लाती है। सुख सचमुच में धन प्राप्ति के लिए अंधी दौड़ में नहीं, प्रेम के निश्छल आदान-प्रदान में है। सहयोग और ईमानदारी में सुख के बीज छिपे होते हैं। परन्तु इस सचाई को भुलाकर नवीनता की चका-चौंध में जो गलत प्रयत्न धन पाने के लिए अपनाएँ जा रहे हैं उन्होंने ही सारी कठिनाइयाँ बढ़ा दी है।
भारतीय संस्कृति में तप और त्याग का धार्मिक महत्व रहा है। इसी पवित्र भावना ने समाज को बाँधे रखा है और ंमन को बेलगाम होकर दौडऩे से रोके रखा है। किन्तु आज अन्य सभ्यताओं की देखा देखी भारतीय संस्कारों को तिलांजलि देकर लोगों ने बाह्यï आकर्षणों में सुख की साध पाल ली है इससे ही देश बीमार हो गया है और इसका संक्रमण फैलता ही जा रहा है।
यदि हमें अपने देश को फिर स्वस्थ और समृद्ध बनाना है तो भारत भूमि की ही जलवायु की ही उपासना करनी होगी और युग की नवीनता को अपने कार्यक्रमों में उचित रूप से समायोजित करनी होगी। बिना सदाचरण, निष्ठा और नैतिकता को अपनायें जीवन में वास्तविक सुख-शांति और समृद्धि असंभव है।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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