॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ प्रकृति व पर्यावरण सुरक्षा ईश्वर की ही पूजा है ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

कहा जाता है कि ईश्वर सर्वज्ञ है सर्वव्यापी है और सर्वशक्तिमान है। वह संसार के समस्त चर-अचर प्राणियों का संरक्षक और पोषक है। वह परम दयालु और अहैतुकी कृपा करने वाला है। उसी ने इस सृष्टि की रचना की है जिसमें सबकी आवश्यकताओं के लिए सबकुछ है। परन्तु वह स्वत: अदृश्य है। उसे केवल अन्तर्चक्षुओं से देखा जा सकता है। इतनी विशालता और विविधता से परिपूर्ण सारी सृष्टि नियमितता से आबद्ध और अनुशासित है। समय चक्र समान गति से घूमता रहता है। दिन होते हैं रात होती है। ऋतुएँ आती जाती रहती है। भूमि को उर्वरा बनाती हैं। भूमि पर विभिन्न  वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं। खेती से विभिन्न फसलें होती है। समय समय पर विभिन्न फसलें पकती हैं। वृक्ष मौसम के अनुसार फल देते हैं। सब आवश्यक और हितकारी हैं। सभी जीवनधारियों की आवश्यकतानुसार सुस्वादु भोजन मिलता रहता है। नदियाँ, पहाड़, समुद्र सब अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। समय के साथ बढ़ते, बनते-बिगड़ते और सेवायें दे के उचित समय पर विनष्ट हो जाते हैं। यही नियम समस्त प्राणि जगत पर भी लागू होते हैं। मनुष्य भी वनस्पति और अन्य प्राणियों की भाँति एक उद्ïदेश्य से संसार में आता है, जन्म लेता, विकसित होता, सेवाएँ देता और अन्त में शांत हो जाता है। किन्तु मनुष्य में एक विशेषता है, उसे बुद्धि और विवेक का वरदान मिला है। वह सोचता विचारता, समझता, निष्कर्ष निकाल सकता और नई खोजें और नव निर्माण कर सकता है। शायद इसी अर्थ में वह ईश्वर का अंश कहा गया है। उसकी आत्मा ईश्वर की ही भाँति सशक्त और अविनाशी है।

ईश्वर अंश जीव अविनाशी

ईश्वर ने जैसे सकल ब्रह्माण्ड की अनुपम रचना की है। सबको अलग अलग रंग रूप और गुण दिए हैं इसी प्रकार मनुष्य ने भी विभिन्न सुख-सुविधाएँ देने वाले यंत्रों-मशीनों का निर्माण कर लिया है और नये-नये अविष्कार करता जा रहा है। वह कल्पनाएँ कर सकता है और उन्हें अपने प्रयासों से साकार कर सकता है  इसीलिए तो अदृश्य ईश्वर को भी जानने के लिए अपनी कल्पनानुसार विभिन्न रूप दिए हैं। पुरातन काल से अब तक बनी विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियाँ और मन्दिरों में उनकी स्थापना उसी का परिणाम हैं। परन्तु सर्वनियंता अलख ईश्वर आज भी अनजाना है। दर्शन शास्त्रियों ने अपने चिन्तन के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त कर उसे पहचानने का प्रयत्न किया किन्तु सभी एकमत नहीं हैं। उसका वास्तविक स्वरूप आज भी रहस्य बना हुआ है। 

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन की शंकाओं को निर्मूल करने के लिए अपना विराट रूप उसे दिखाया था जिसमें सारा ब्रह्मïाण्ड ही समाहित है। यह रूप ही ईश्वर के सत्स्वरूप को समझने का सबल संकेत है। प्रकृति, ईश्वर की रचना है और प्रकृति के क्रियाकलापों  के माध्यम से नवसृजन करती है। उसी की इच्छा, प्रेरणा और कृपा से सब निर्माण-विकास-परिवर्तन और लय होते हैं अत: प्रकारान्तर से प्रकृति की यही महान शक्ति ही ईश्वर है। यही प्रकृति और उसकी सृष्टि की परमात्मा के स्वरूप की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। प्रकृति के क्रिया-कलापों से ही ईश्वर की सत्ता और स्वरूप का आभास मिलता है। प्रकृति ही सबको जीवन दान देती है और अपनी अकथनीय लीलाओं से सबका संधारण और संवरण करती है। आँधी, बाढ़, भूकम्प, तूफान, भूस्खलन जैसी आकस्मिक अनायास उत्पन्न घटनायें प्रलय ला देती हैं साथ ही विश्व को नया रूप प्रदान करती हैं। प्रकृति और पर्यावरण से ही जीवन को गति मिलती है। प्राणियों को सुख-दुख मिलते हैं और संसार में नवीनता आती है। जीवन को विकास के नये अवसर मिलते हैं। प्रकृति की मुस्कान ही फूल खिलाती है और क्रोध ही विनाश का कारण बनता है। इसलिए यह बात सहज समझ में आनी चाहिए कि पर्यावरण ही सबका रक्षक है। और विपरीत स्थितियों में विश्व का भक्षक भी हो सकता है। मानव जीवन में प्राकृतिक पर्यावरण का जीवन मरण के लिए भारी महत्व है। हमें पर्यावरण की सुरक्षा कर उसे जीवन के लिए अनुकूल बनाने के सतत प्रयत्न करने चाहिए। प्राकृतिक पर्यावरण सभी प्राणियों के साथ मानव जाति का चिर सहचर है। वह हमारे मनोभावों को समझता है हमारे सुखोंं में खुश होता है और दुखों में संवेदना सूचक उदासी प्रदर्शित करता है। शुद्ध और स्वच्छ पर्यावरण मन को प्रसन्नता और पावनता प्रदान करता है और दूषित पर्यावरण उदासी और मलिनता से दुखी करता है। जीवन के पालन पोषण और सुरक्षा में प्रकृति और पर्यावरण की निरन्तर वही भूमिका है जो सर्वशक्तिमान ईश्वर की विश्व के संचालन में है। इसीलिए तो भारतीय ऋषियों मुनियों ने प्रकृति के सानिध्य में वनों में रहकर चिन्तन मनन और ईश्वराधना को मानव जीवन के तृतीय आश्रम को ”वानप्रस्थ’‘ का नाम दिया है। प्रकृति की पूजा और पर्यावरण की सुरक्षा ही ईश्वर की सच्ची पूजा और उपासना है जिसका सहज वरदान स्वस्थ्य काया का पुण्य लाभ है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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