॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ कर्म की महत्ता॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
मानव जीवन का कर्म से बड़ा गहरा नाता है। बिना कर्म किये जीवन चल ही नहीं सकता। जन्म से मरण पर्यन्त मनुष्य सदा कुछ न कुछ तो करता ही रहता है। कर्म ही जीवन को गति देते हैं। कर्म ही उसके भविष्य का निर्माण करते हैं। रामचरित मानस में संत तुलसीदास जी ने लिखा है-
कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करिय सो तस फल चाखा॥
विश्व में कर्म की ही प्रधानता है। जो जैसा करता है उसे वैसा फल मिलता है। जैसा लोग बोते हैं वैसा ही पाते हैं। इस दृष्टि से तो कर्म का सिद्धान्त बड़ा सीधा और सहज है। भले का परिणाम भला और बुरे का परिणाम बुरा। परन्तु संसार में हमेशा ऐसा ही घटता हमेशा नहीं दिखता। कभी तो होम करते भी हाथ जलते देखा जाता है। अच्छा करने चलो परिणाम उलटा निकलते दिखता है। और इसके विपरीत कभी सारे दुर्गुणों से युक्त दुष्कर्म करने वाले सब प्रकार के सुखी, यश, मान, पाते हुए उन्नति करते दिखते हैं। ऐसा क्यों होता है कहना बड़ा कठिन है। परन्तु धर्म-निष्ठ अध्यात्मज्ञानी इसका उत्तर देते हैं- स्मृति न होने से इस कथन की प्राभाविकता का सत्यापन तो नहीं किया जा सकता, किन्तु हर कर्म उचित समय पर विभिन्न वृक्षों की भाँति फल देते हैं- इस सिद्धान्त पर विश्वास करके अनिवार्यत: प्रारब्ध का विधान मानकर संतोष करना पड़ता है। यद्यपि कर्मांें के विपरीत फल देखकर वास्तविक जीवन मेें मन विचलित अवश्य हो जाता है। फिर जीवन में व्यक्ति क्या करे ? क्या न करे ? निश्चित रूप से जो त्रिकाल सत्य हो ऐसा कहना बड़ा कठिन और उलझन पूर्ण है। एक ही कर्म देश काल और परिस्थिति वश अच्छा या बुरा कहा जाता है। एक व्यक्ति यदि किसी अन्य को जान से मार डालता है तो कानून के अनुसार उसे फाँसी की सजा दी जाती है किन्तु भिन्न परिस्थितियों में यदि एक व्यक्ति जो दस लोगों की जान ले लेता है तो उसे परमवीरचक्र का सम्मान मिलता है और इतिहास में वह अमर हो जाता है। सबके आदर का पात्र बन जाता है।
समाज में व्यक्ति अपने कर्माे से ही अपनी छवि निखारता है। कर्माे से ही लोग भले-बुरे, सज्जन-दुष्ट, उदार-कठोर, दयालु-निर्दय या विश्वस्त और धोखेबाज कहे और पहचाने जाते हैं।
मोटे तौर पर तो यही कहा जा सकता है कि समाज की मान्यता के अनुसार अच्छे कर्म किए जाने चाहिए और बुरों का त्याग किया जाना चाहिए। किन्तु क्या नैतिक है और क्या अनैतिक यह भी तो समय की कसौटी पर हमेशा एक सा नहीं होता इसीलिए गीता कहती है-”कर्मण: गहना गति:’‘ अर्थात्ï करमन की गति न्यारी। यही स्थिति अर्जुन की तब हुई थी जब रणक्षेत्र में वह अपने नाते रिश्तेदारों से घिरा हुआ, उन्हीं से युद्ध करने के लिए खड़ा था। समस्या थी, एक छोटे से राज्य के लिए वह युद्ध कैसे करे? किन्हें मारे, किन्हें न मारे ? क्या उसे पाप नहीं लगेगा। तब ऐसी द्विविधा की स्थिति में श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया था-”कर्मणि एव अधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्ï’‘ अर्थात्ï कर्ता का अधिकार केवल कर्म पर है फल पर नहीं अत: हे अर्जुन तू केवल कर्म कर। वह कर्म जो तेरा धर्माेचित कत्र्तव्य है। ”मा कर्मफल हेतुर्भूमासङ्गïोस्तु कर्मणि।’‘ केवल कर्म कर, कर्म के फल अर्थात्ï परिणाम पर मन को आसक्त मत कर। फल का निर्धारण तो स्वत: कर्म से ही होता है, फल की चिंता किये बिना तू केवल अपना कत्र्तव्य करता चल। गीता में ही आगे कहा गया है-”स्वधर्मे निधनं श्रेय: परर्धाे भयावह:।’‘ अपने धर्म अर्थात्ï कत्र्तव्यों का निर्वाह किया जाना ही सदा श्रेयस्कर है। और धर्म की सरल व्याख्या तुलसी दास ने जो की है वह है-
परहित सरित धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
अत: स्पष्ट है कि जो कर्म बहुजन के लिए हितकर हो वह किया जाना चाहिए ऐसा न किया जाय जो दूसरों के लिए अहित कारी हो।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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