॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ विभाजन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

एक देश के विभाजन के समय विभाजन की रेखा एक पागल खाने के बीच से  निकलती थी। दोनों देश के अधिकारियों ने पागलों की जिम्मेदारी लेने में आनाकानी की क्योंकि पागलों से उनकी परेशानी बढ़ सकती थी और रोज का सुख-चैन नष्ट हो सकने की संभावना थी। प्रकरण को निपटाने के लिए तय हुआ कि क्यों न संबंधित पागलों की राय ले ली जाय कि कौन किस देश में रहना चाहता है।

अधिकारियों ने पागलों से कहा-”देखो, देश का बँटवारा होना है। आप इस देश में रहना चाहते हो या उसमें’‘    

पागलों ने कहा-”हम गरीबों का पागलखाना भला क्यों बाँटा जा रहा है ? हमने ऐसी क्या गलती की है जो हमें सजा दी जा रही है। हम तो सब लोग एक साथ रहते हैं। सब एक से हैं। कोई मतभेद नहीं है। हम सबके साथ रहने में आपको क्या आपत्ति है ?’‘

अधिकारियों ने कहा-”आपको कहीं जाना नहीं है। रहना वहीं है जहाँ रह रहे हो। सिर्फ इतना बताना है कि तुम किस देश में जाना चाहते हो- यहाँ या वहाँ। कहाँ रहना चाहते हो इसमें या उसमें ?’‘

पागलों ने कहा-”भला ये भी कोई बात है। हमें जब कही जाना ही नहीं है, रहना यही है तो बँटवारे की बात पागलपन नहीं है ?  ऐसा भी भला कोई बँटवारा  है ? हम तो यूँ ही अच्छे है। ‘‘

अधिकारियों को लगा कि वे मुश्किल में फँस गये। पागलों से कौन माथापच्ची करे। पागल खाने के बीच से विभाजन रेखा पर एक दीवार उठवा दी जाये, बस झंझट दूर हो। ऐसा ही कर दिया गया।

दीवार बन जाने पर पागल कभी उस पर चढ़ कर झाँकते और दूसरों से कहते-”इन समझदार लोगों ने ये क्या बँटवारा किया है ? न हम कहीं गये न तुम। इस दीवार ने हमारा मिलना-जुलना, हँसना-बोलना बंद करा दिया। ऐसा करने से इन्हें क्या मिला ?’‘

एक पागल चिल्ला उठा-”अरे जिनने ये दीवर उठवाई है वे पागल हैं। उन्होंने देश को कहाँ बाँटा देश तो जहाँ के तहाँ है। उन्होंने तो दिलों को बाँटने की कोशिश की है। उनसे तो हम अच्छे हैं जो एक दूसरे के दिल को समझते हैं। मगर अब हमें अलग खानों में बंद कर दिया गया है।’‘

जब-जब आदमी पर मूर्खता का जुनून सवार होता है तब तब वह जन समुदाय को यों ही रंग, जाति, वेश, भाषा, प्रदेश और धर्मों  के या ऐसे ही किन्हीं अन्य के घेरों में बंद कर उन्हें विभाजित करता आया है-शायद केवल अपने ही किसी स्वार्थ के लिए, जो नई तबाही लाता है और उसकी भर नहीं सब समाज की सारी खुशी और सुख शांति नष्ट कर देता हैं।

हर विभाजन संपत्ति को घटाता और विपत्ति को बढ़ाता है। 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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Subedarpandey

अति सुन्दर आलेख, दिलों का बंटवारा दिल को ही दुःख देता है परिवार बंटता है तो रिस्ते टूटते
हैं, समाज बंटता है तो दिल टूटते हैं , संप्रदाय बंटता है तो दिल की खांई बढ़ती है, जब राष्ट्र बंटता है तो अविश्वास की खाईं बढ़ती है । और परिणाम युद्ध और हिंसा प्रति हिंसा से निरपराध जनता की तबाही तथा मौत इन सबका जिम्मेदार कौन?