मानस के मोती

☆ ॥ रामचरित मानस में लोकतंत्र के सिद्धान्तों का प्रतिपादन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

महात्मा तुलसी दास विरचित ‘रामचरित मानसÓ एक काल जयी अनुपम रचना है। विश्व साहित्य की अमर धरोहर है जो लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत, भटकी हुई मानवता को युगों युगों तक मार्गदर्शन कर जन जीवन के दुख दूर करने में प्रकाश-स्तंभ की भाँति दूर दूर तक अपनी किरणें बिखेरती रहेगी। महाभारत के विषय में यह लोकोक्ति है कि-

जो महाभारत में नहीं है वह संसार में भी नहीं है

अर्थात्ï महाभारत में वह सभी वर्णित है जो संसार में देखा सुना जाता है। यही बात रामचरित मानस के लिये भी सच मालूम होती है। मनुष्य के समस्त व्यापार, विकार और मनोभावों का चित्रण मानस में दृष्टिगोचर होता है और उसका प्रस्तुतीकरण ऐसा है जो एक आदर्श प्रस्तुत कर बुराइयों से बचकर चलने का मार्गदर्शन करता है। संसार में मानव जाति ने विगत 100 वर्षों में बेहिसाब वैज्ञानिक व भौतिक प्रगति कर ली है किन्तु मानवीय मनोविकार जो जन्मजात प्रकृति प्रदत्त हैं ज्यों के त्यों हैं। इन्हीं के कारण मानव मानव से प्रेम भी होता है और संघर्ष भी। मानस में पारिवारिक सामाजिक राजनैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों से संबंधित परिस्थितियों में मनुष्य का आदर्श व्यवहार जो कल्याणकारी है कैसा होना चाहिए इसका विशद विवेचन है। इसीलिए यह ग्रंथ साहित्य का चूड़ामणि है और न केवल भारत में बल्कि विश्व के अन्य देशों में भी सभी धर्माविलिम्बियों द्वारा पूज्य है।

राजनैतिक क्षितिज पर आज लोकतंत्र की बड़ी चमक है। दुनियाँ के कुछ गिने चुने थोड़े से देशों को छोडक़र सभी जगह लोकतंत्रीय शासन प्रणाली का बोल बाला है। क्यों? -कारण बहुत स्पष्ट है। मानव जाति ने अनेकों सदियों के अनुभव से यही सीखा है कि किसी एक राजा या निरंकुश अधिनयाक के द्वारा शासन किये जाने की अपेक्षा जनता का शासन जनता के द्वारा ही जनता के हित के लिए किया जाना बहुत बेहतर है क्योंकि किसी एकाकी के दृष्टिकोण और विचार के बजाय पाँच (पंचों) का सम्मिलित सोच अधिक परिष्कृत और हितकारी होता है। इसीलिए जनतंत्र में जनसाधारण की राय (मत) का अधिक महत्व होता है और उसे मान्यता दी जाती है।

तुलसी दास के युग में जब उन्होंने मानस की रचना की थी जनतंत्र नहीं था तब तो एकमात्र एकतंत्रीय शासन था जिसमें राजा या बादशाह सर्वेसर्वा होता था। उसका आदेश ईश्वर के वाक्य की तरह माना जाता था। सही और गलत की विवेचना करना असंभव था। तब भी अपने परिवेश की भावना से हटकर दूरदर्शी तुलसी ने कई सदी बाद प्रचार में आने वाली शासन प्रणाली ‘जनतंत्रÓ की भावना को आदर्श के रूप में प्रतिपादित किया है। मानस के विभिन्न पात्रों के मुख से विभिन्न प्रसंगों में तुलसी ने अपने मन की बात कहलाई है जो मानस के अध्येता भली भाँति जानते हैं और पढक़र भावविभोर हो सराहना करते नहीं थकते।

जनतंत्रीय शासन प्रणाली के आधारभूत स्तंभ जिनपर जनतंत्र का सुरम्य भवन निर्मित है, ये हैं- (1) समता या समानता, (2) स्वतंत्रता, (3) बंधुता या उदारता और (4) न्याय अथवा न्यायप्रियता। इन चारों में से प्रत्येक क्षेत्र की विशालता और गहनता की व्याख्या और विश्लेषण करके यह समझना कि समाज में जनतंत्र प्रणाली ही अपनाये जाने पर प्रत्येक शासक और नागरिक के व्यवहारों की सरहदें और मर्यादा क्या होनी चाहिए, रोचक होगा किन्तु चूँकि इस लेख का उद्ïदेश्य मानस में लोकतंत्रीय भावनाओं का पोषण निरुपित करना है इसलिए विस्तार को रोककर समय सीमा का ध्यान रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में रामचरित मानस से उदाहरण मात्र प्रस्तुत करके संतोष करना ही उचित होगा।

सुधी पाठकों का ध्यान नीचे दिये प्रसंगों की ओर इसी उद्ïदेश्य से, केन्द्रित करना चाहता हूँ।

श्री राम का परशुराम से निवेदन-

छमहु चूक अनजानत केरी, चहिय विप्र उर कृपा घनेरी॥ 

अयोध्या काण्ड 281/4

श्री राम का सोच-

विमल वंश यहु अनुचित एकू, बंधु बिहाय बड़ेहि आभिषेकू॥

अयोध्या काण्ड 7/7

दशरथ जी का जनमत लेकर कार्य करना-

जो पांचहि मत लागे नीका, करहुँ हरष हिय रामहिं टीका॥

अयोध्या काण्ड 4/3

भरत का लोकमत लेकर कार्य करना-

तुम जो पाँच मोर भल मानी, आयसु आशिष देहु सुबानी।

जेहि सुनि विनय मोहि जन जानी आवहिं बहुरि राम रजधानी॥

अयोध्या काण्ड 182/4

चित्रकूट से वापस न होकर श्री राम का भरत से कथन-

इसी प्रकार शबरी मिलन, अहिल्योद्धार, विभीषण को शरणदान, सागर से मार्ग देने हेतु विनती आदि और ऐसे ही अनेकों प्रसंगों में विनम्रता, दृढ़ता, समता, सहजता, स्पष्ट वादिता, उदारता, नीति और न्याय की जो लोकतंत्र के आधारभूत सिद्धान्त हैं और जो जनतंत्र को पुष्टï करते हैं तथा राजा/राजनेता को जनप्रिय बनाते है बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की गई हैं। इन्हीं आदर्शों को अपनाने में जन कल्याण है।

इसीलिए मानस सर्वप्रिय, सर्वमान्य और परमहितकारी जन मानस का कंठहार बन गयाहै।

अब्दुर्रहीम खान खाना ने जिसकी प्रशंसा में लिखा है-

रामचरित मानस विमल, सन्तन जीवन-प्राण।

हिन्दुआन को  वेदसम, यवनहिं प्रगट कुरान॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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