॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ पाप क्या पुण्य क्या? ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

पाप क्या है और पुण्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर आज भी अनेकों के पास नहीं है, क्योंकि उनकी बुद्धि में इसकी अवधारणा स्पष्ट नहीं है। सामान्यत: व्यवहार में सच बोलना भगवान का भजन-पूजन करना, तीर्थाटन करना, दान देना, पुण्य के कार्य हैं और झूठ बोलना, चोरी करना, अन्य प्राणियों को सताना, अपने निर्धारित कर्तव्यों को न करना पाप है। परन्तु जो प्राय: नित्य देखने में आता है वह इसके विपरीत है। सच बोलना पुण्य कार्य होते हुये सच प्राय: कम ही लोग बोलते हैं और अन्यों का सताना पाप कार्य होते हुये भी अधिकांश लोग मछली, मुर्गी, बकरी को मारकर मांसाहार से अपना पेट भरते हैं। समाज में सात्विकता और सदाचार के दर्शन कम होते हैं, जबकि अत्याचार और दुराचार सर्वत्र परिव्याप्त दिखता है। ऐसा क्यों है? इसका एक मुख्य कारण तो शायद यह है कि मनुष्य के अधिकांश क्रियाकलाप स्वार्थ और सुख की प्रेरणा से संचालित होते हैं और दूसरा यह कि वर्तमान वैज्ञानिक युग में जीवन की आपाधापी में वह अपनी संवेदनायें खो चला है। बुद्धिवादी मनुष्य तत्काल लाभ के कार्यों को प्राथमिकता देने लगा है। वह मानने लगा है कि पुण्य की श्रेणी में परिभाषित कार्यों का लाभ तुरंत तो नहीं मिलता दिखता क्या पता भविष्य में मिले न मिले।

सुदूर अतीत के धर्मप्राण समाज को पाप-पुण्य की मान्य अवधारणाओं ने स्वानुशासित रखने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। धीरे-धीरे अशिक्षा और अज्ञानवश आडम्बरपूर्ण परिपाटियों ने स्थान ले लिया और वर्तमान युग से शिक्षा के प्रभाव से तथा पश्चिमी हवा के प्रवाह से हमारी मान्यताओं में भारी परिवर्तन ला दिये हैं। तर्कशील समाज प्राचीन परिपाटियों को तोडक़र कुछ नया करने में अपना बड़प्पन समझता है और पुरातन मान्यताओं को पिछड़ापन मानने लगा है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है कि-

‘सभी पुराना बुरा है, सभी नया अवदात

अति नवीनता कर रही आज कई अपघात॥’

वास्तव में पाप-पुण्य की व्याख्या समय और दृष्टिकोण सापेक्ष्य हैं। एक ही कार्य उद्देश्य की भिन्नता से एक परिस्थिति में पाप हो सकता है। जबकि दूसरी परिस्थितियों में पुण्य। उदाहरणार्थ एक व्यक्ति अपने हित के लिये यदि किसी का कत्ल कर देता है तो वह पाप है। कानून भी स्वार्थवश की गई हत्या को जुर्म करार देता है और उसका दण्ड फांसी है। किन्तु दूसरी परिस्थिति में एक ही व्यक्ति समाज या देश हित में आक्रमणकारी अनेकों शत्रुओं की हत्या करता हैं, तो वह पुण्य है। शासन उसे परमवीर चक्र से पुरस्कृत कर सम्मानित करता है। कार्य एक ही है हत्या, किन्तु भिन्न परिस्थितियों में एक पाप है और एक पुण्य। इससे स्पष्ट है कि पाप या पुण्य की भावना उद्देश्य मूलक है। देशकाल के अनुरूप है और जन सामान्य के हित में है। साथ ही समाज को नैतिक और अनुशासित आचरण करने में मार्गदर्शक है। प्रत्येक को अपने और अनुशासित आचरण करने में मार्गदर्शक है। प्रत्येक को अपने कर्तव्यों और दायित्वों का बोध सरलता से इसके माध्यम से दिया जाता रहा है।

प्रत्येक व्यक्ति द्वारा जीवन में अन्य व्यक्तियों तथा समस्त सृष्टि के साथ क्या किया जाना क्या उचित है और क्या अनुचित है, इसकी व्याख्या कर धर्म उचित शिक्षा देता है। कर्तव्य का ही दूसरा नाम धर्म है। प्रत्येक धर्म जनकल्याण के लिये है। इसीलिये हमारे धार्मिक ग्रंथों में पाप-पुण्य की बड़ी सरल और सटीक व्याख्या की गई है-

‘परोपकारं पुण्याय, पापाय परपीडऩम्’

अर्थात् पुण्य पाने के लिये परोपकार करो, दूसरों को पीड़ा देना पाप होता है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इसी बात को बोलचाल की भाषा में कहा है-

परहित सरिस धरम नहिं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥

इस सरल मंत्र को आत्मसात कर यदि जीवन में इस पर सब अमल करें तो विश्व में सर्वत्र सुख-शांति और समृद्धि हो तथा सारे झगड़े समाप्त हो जायें।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments