॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ साहित्य की उपादेयता ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मनुष्य जिस समाज और जिस परिवेश में रहता है, उससे प्रभावित होता है। उससे सीखता है, समझता है और वैसा ही व्यवहार करता है। समाज के संपर्क में आ अच्छाइयों की सराहना करता है, दुखी जनों के प्रति संवेदनायें प्रकट करता है। जीवन संघर्ष में मनुष्य परिश्रम कर सफलता पाना चाहता है और आनन्द प्राप्ति की आकांक्षा से भावी जीवन के नित नये सपने देखता रहता है।

सतत एकरूपता के संघर्ष से ऊबकर वह कुछ नवलता चाहता है। जैसे रोज-रोज एक से भोजन से मन ऊब जाता है उसे नये स्वाद पाने की चाह रहती है और इसीलिये घरों में गृहणियां नित कुछ नये स्वाद का भोजन तैयार किया करती हैं, वैसे ही दैनिक जीवन में कुछ नया देखने और आनंद पाने को व्यक्ति घर से बाहर घूमने जाता है। नदी का किनारा, कोई बाग बगीचा, कोई सुन्दर दृश्य वाला स्थान या मन बहलाव का साधन उसे ताजगी देता है, स्फूर्ति देता है, थकान दूर करता है, नई प्रेरणा देता है तथा उसकी कार्यक्षमता को बढ़ाता है। इसी दृष्टि से आज पर्यटन का महत्व बढ़ चला है।

यदि व्यक्ति बाहर न जा सके तो उसे बाहर का वातावरण उसी के कक्ष में उपलब्ध हो सके इसी का प्रयास पुस्तकें करती हैं। साहित्यकारों के द्वारा विभिन्न रुचि के ललित साहित्य का सृजन इसी दृष्टि से किया जाता है। ज्ञानवर्धक पुस्तकों से भी नया ज्ञान और जीवन को नई दृष्टि मिलती है। आज सिनेमा, टीवी, रेडियो आदि का भी प्रचार इसी आनंद प्राप्ति के लिये बढ़ गया है। ये सभी पुस्तकों में प्रकाशित साहित्य की भांति ही व्यक्ति को सोचने, समझने, सीखने और मनोरंजन के लिये नये प्रसंग और स्थितियां प्रदान करते हैं।

साहित्यकार अपनी कल्पना से एक नये सुखद संसार का सृजन करता है, इसीलिये उस नये संसार में विचरण कर सुख की अनुभूति के लिये पुस्तकें, कविता, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृतांत, निबंध, जीवन गाथायें, वार्तालाप आदि। अपनी रुचि के अनुसार किसी भी विधा में साहित्य रचा जाता है और पाठक अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार चुनकर पुस्तकों को पढ़ता है। सभी रचनाओं का उद्देश्य किन्तु पाठक को आनन्द देना, कोई नया संदेश देना, सोचने समझने को दिशा देना, मन मस्तिष्क को तृप्ति देना या उनका मनोरंजन कर कल्पना लोक की सैर करा प्रसन्नता प्रदान करना ही होता है। यह परिवर्तन कभी-कभी पाठक की जीवनधारा को बदल देने की भी क्षमता रखता है। इसीलिये सत्साहितय को मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ मित्र कहा जाता है और पुस्तकालयों व वाचनालयों को ज्ञान का कोषालय तथा जीवन का सृजनालय कहा जाता है। साहित्य समाज के सात्विक उत्थान, नैतिक जागरण, कल्याण तथा मनोरंजन का अनुपम साधन है। जो कुछ कठिन प्रयत्नों के बाद भी परिवेश में दुर्लभ होता है। वह मनवांछित वातावरण पुस्तकों के माध्यम से कल्पनालोक में अनायास ही पाठक को मिल जाता है, जिसके प्रकाश में अनेकों समस्यायें सरलता से सुलझाई जा सकती हैं। साहित्य की यही सबसे बड़ी उपदेयता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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