॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ घरोंदों से खेल ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

नदी या समुद्र तट की चमकीली आकर्षक रेत पर बच्चों को खेलते और स्वेच्छानुसार मन मोहक घरोंदे बनाते प्राय: सभी ने देखा है। अपने घरोंदों को नये-नये सजीले रूप देकर औरों के बनाये हुये घरोंदों से ज्यादा सुन्दर सिद्ध करने के लिये उन्हें आपस में उलझते और बने हुये को बिगाडक़र परिश्रम से फिर नया बेहतर बनाते भी उन्हें प्राय: देखा जाता है। ऐसा कर वे स्वेच्छानुसार अपने उपलब्ध समय का उपयोग करते रहते भी मनोरम स्वप्नलोक में प्रसन्न दिखाई देते हैं।

पर जैसे ही शाम के अंधेरे की चादर पसरती दिखाई देती है, उन्हें घर लौटने की याद आ जाती है। सभी अपने बनाये सुन्दर निर्माण को जी भरके निहारते और पुलकित होते हैं पर घर लौटने की जल्दी में घुपते अंधेरे में अपने ही हाथों मिटाकर, नये दिन, नई कल्पना से और बढिय़ा बनाने की आशा ले सब मिलकर हंसते उछलते अपने घरों की ओर प्रसन्नतापूर्वक लौट जाते हैं। बच्चों का यह सामान्य स्वभाव ही होता है कि समय और श्रम देकर अपने ही निर्माण को जो सारी मनोकामनाओं के अनुरूप शायद कभी भी नहीं बन पाता, स्वत: ही मिटाकर और अधिक आकर्षक बनाने की क्षमता रख मिटा डालने में कभी दुख का अनुभव नहीं करते बल्कि ऐसा करके वे अधिक खुश होते हैं।

किन्तु कभी क्या सांसारिक जीवन में मानव प्रवृत्ति को भी देखने, पढऩे और समझने का प्रयत्न किया है? जीवन में मनोवांछित सफलता तो शायद ही कभी एकाध भाग्यवान को प्राप्त हो पाती है, अधिकांशजनों को तो इच्छित सफलता शायद दूर ही दिखती है। फिर भी अपने आकस्मिक या संचित प्रयत्नों से भला या बुरा वह जो भी जोड़ पाता या बना पाता है, उससे उसका इतना मोह हो जाता है कि अपने अनुपयोगी निरर्थक संग्रह से भी वह विलग नहीं होना चाहता।

माया-मोह की आपाधापी में जीवन बीतता जाता है और जैसे-जैसे जीवन संध्या उतरती आती है उसकी आसक्ति शायद और अधिक बढ़ती जाती है। वह मन के लोभ व मोह के मनोविकारों के चंगुल में और अधिक फसता जाता दिखाई देता है। इससे वृद्धावस्था में जीवन कठिन और दुखद हो जाता है। साथ ही संपर्क में आनेवाले सभी परिवारजनों की शांति सुख भी विपरीत न दिशा मेें प्रभावित होती दिखाई देती है। जीवन का आनंद नष्ट हो जाता है।

कितना अच्छा होता कि जीवन संध्या के बढ़ते अंधकार में सामान्य संसारीजन भी रेतीले तटों पर खेलने वाले बच्चों की सहज प्रवृत्ति के अनुसार ही अपने आजीवन प्रयत्नों से किये गये निर्माणों और संचयों को जो थोड़े या अधिक भले या बुरे जैसे भी हों बालकों के निर्मित घरोंदों की भांति स्वत: अपने हाथों खुशी खुशी तोडक़र हीं नहीं प्रसन्नता पूर्वक छोडक़र ईश्वर की स्तुति और आरती में अपनी जीवन संध्या को समर्पित करते हुये उदारतापूर्वक मंदिर में प्रसाद वितरण की भांति जनहित में प्रदान कर आंतरिक खुशी का अनुभव करते। जिस परमपिता परमात्मा ने, संसार सागर के सुनहरे रेणुतट पर रहने और खेलने का कृपापूर्वक सुअवसर प्रदान किया, उसके प्रति कृतज्ञता के भाव में रम सकें। संसार सागर के तट पर जिसका ज्योति स्तंभ अंधेरी रात में भटकते जलयानों को अपने प्रकाश से आश्रय प्रदान करने का आमंत्रण देता है, उसके आलोक को समाहित कर अनन्त शाांति का अनुभव करें। तब ही मनुष्य को बच्चों के मन में प्रस्फुटित होने वाली सच्ची खुशी का अनुभव हो सकता है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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