॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ दुख का मूल तृष्णा ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
महात्मा बुद्ध ने अपने गहन, अध्ययन, मनन और चिन्तन के बाद यह बताया कि संसार में मानव मात्र के दुख का एकमेव कारण तृष्णा है। तृष्णा का शाब्दिक अर्थ है- प्यास। अर्थात् पाने की उत्कट इच्छा। सच है मनुष्य के दुखों का कारण उसकी कामनायें ही तो हैं। कामनायें जो अनन्त हैं और जिन की पुनरावृत्ति भी होती रहती है। कामना जागृत होने पर उसे प्राप्ति की या पूरी करने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। एक के पूरी होते ही दूसरी तृष्णा की उत्पतित होती है। नई तृष्णा की या पुनरावृत्त तृष्णा की पुन: पूर्ति के लिये प्रयत्न होते हैं और मनुष्य जीवन भर अपनी इसी पूर्ति के दुष्चक्र में फंसा हुआ चलता रहता है। इच्छा की पूर्ति न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है, जिससे अज्ञान, मति-भ्रम और अनुचित व्यवहारों की श्रृंखला चल पड़ती है। जिनसे परिणामत: दुख होता है। सारत: समस्त दुखों का मूल तृष्णा है। इसी तृष्णा को आध्यात्मिक चिन्तकों में माया कहा है? माया का सरल अर्थ है वह स्वरूप जो वास्तव में नहीं किन्तु भासता है। जैसे तीव्र गर्मी की दोपहर में रेतीले मैदान पर दूर से देखते पर जलतरंगों का भास होता है, जिसे मृगतृष्णा या मृगमरीचिका कहा जाता है। गहराई से चिन्तन करें तो समझ में आता है कि यह संसार भी कुछ ऐसा ही झूठा है। जो दिखता है वैसा है नहीं। समयचक्र तेजी से परिवर्तन करता चलता है। जो अभी है वह थोड़ी देर के बाद नहीं है। आज का परिदृश्य कल फिर वैसा दिखाई नहीं देता। यह परिवर्तन न केवल ऊपरी बल्कि भीतरी अर्थात् आन्तरिक भी है। मन के भाव भी क्षण-प्रतिक्षण बदलते रहते हैं इससे आज जो जैसा परिलक्षित होता है, कल भी वैसा ही नहीं लगता। यही तो विचारों की क्षणभंगुरता और खोखलापन सिद्ध करता है और यह माया ही सबको भुलावे में डालकर दुखी बनाये हुये है। इसीलिये कबीर महात्मा ने कहा- माया महाठगिनि हम जानी। इस महाठगिनी माया या तृष्णा से बचने के दो ही रास्ते हैं। 1. जो इच्छा हो उसको अपने पुरुषार्थ से पूर्ति कर के उस सुफल का उपभोग कर सुखी हो या 2. तृष्णा की पूर्ति का सामथ्र्य न हो तो इच्छा का परित्याग करना या त्याग करना उस प्रवृत्ति का जिससे मन में प्राप्ति की इच्छायें जन्म लेती हैं। चूंकि सबकुछ, सब परिस्थितियों में सहजता से नहीं मिल पाता इसलिये विचारकों ने त्याग की वृत्ति को प्रधानता दी है। त्याग को भी दो प्रकार से समझा जा सकता है। एक तो विचारों का त्याग अर्थात् विचार का ही न उत्पन्न होना और दूसरा वह संग्रह (वस्तु आदि) जो नई इच्छाओं को उत्पन्न करती है। इसलिये कोई संग्रह ही न किया जाये। इसी भाव की पराकाष्ठा जैन सन्यासियों के आचरण में परिलक्षित होती है कि वे दिगम्बर रहकर जीवन व्यतीत करते हैं। किसी वस्तु को आवश्यक न मान सब कुछ त्याग देते हैं। इसीलिये हमारे यहां त्याग तप और दान की बड़ी महिमा है। सभी धर्मों में परोपकार और दान के लिये यथोचित त्याग करने का उपदेश दिया है। धर्मोपदेश के उपरांत भी किससे कितना त्याग संभव है यह व्यक्ति खुद ही समझ सकता है। जीवन में त्याग के दर्शन को समझकर भी मनुष्य कर्म का पूर्णत: परित्याग नहीं कर सकता। अत: गीता ने इसी को और स्पष्ट करने के लिये कहा है-
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ अर्थात् हे मानव तेरा अधिकार मात्र कर्म पर है उसके परिणाम (फल) पर नहीं, क्योंकि फल तो किसी अन्य शक्ति के हाथ में है इसीलिये तू कर्म तो कर, क्योंकि वह तो तेरा आवश्यक उपक्रम है, किन्तु उसके फल की कामना को त्याग कर जिससे परिणाम चाहे जो भी हो तुझे दुख न हो।
वास्तव में सच्चा सुख त्याग में है। त्याग का अर्थ दान भी और स्वेच्छा का विसर्जन भी लिया जाकर अपना संग्रह बहुजन हिताय, बहुजन७ सुखाय बांटने में सुख और संतोष पाया जा सकता है। कहा है- संतोषं परम सुखम्।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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