॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ भारतीय संस्कृति॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

हमारी भारतीय संस्कृति प्राकृतिक गोद में पली बढ़ी अनोखी प्रेमल संस्कृति है। वनस्थलियों में ऋषिमुनियों-मनीषियों के आश्रम थे। वे शिक्षा के केन्द्र थे। वहीं आरण्यकों का सृजन हुआ। वनों ने ही आध्यात्मिक चेतना जगाई और हमें प्रकृति पूजा सिखाई। किन्तु आज की नागरी सभ्यता नये कल्पना लोक में पनपती हुई वनो से दूर होती गई है। आज तो शहरों में अनेकों निवासी ऐसे हैं जिन्होंने वनों को देखा भी नहीं, केवल चित्रों में ही देखा होगा। वे शायद वनों को हिंस्र वन्यजीवों का आवास स्थल मात्र मानते हैं और उनसे भयभीत रहते हैं। किन्तु ऐसा है नहीं। वन तो देश की भौतिक समृद्धि के स्रोत और आध्यात्मिक उन्नति के उद्गम स्थल हैं। उन्हें सही दृष्टि से देखने, पढऩे और समझने की आवश्यकता है। वे मनोरंजन, ज्ञान और आध्यात्म चेतना के संदेशवाहक हैं। वहां आल्हादकारी पवित्र वातावरण, प्राणदायिनी शीतल शुद्ध वायु, मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य, प्रभावोत्पादक परिवेश तथा मन को असीम आनंद के साथ ही सद्शिक्षा प्रदान करने वाले अनेकों उपादान उपलब्ध हैं। अनेकों प्रजातियों के पौधे, वृक्ष, लतायें, झाडिय़ां औषधियां तथा विभिन्न प्रकार की घास एक दूसरे के पास हिल-मिलकर ऊगते, विकसते और फलते-फूलते दिखाई देते  हैं। हरे भरे ऊंचे वृक्ष अभिमान त्याग लताओं और कटीली झाडिय़ों को भी गले लगाते स्नेह बांटते दिखते हैं। वृक्ष अपनी शाखाओं में रंग-बिरंगे विभिन्न चहचहाते पक्षियों को आश्रय देते नजर आते हैं तो विभिन्न रंगरूप की नीची और ऊंची घनी घास एक साथ अपने स्नेह की थपकियां देती छोटे-बड़े निर्दोष प्राणियों और हिंस्र पशुओं को भी अपनी गोद में अंचल से ढांक कर रखती दिखती है। पक्षियों की टोलियां आकाश में निर्बाध गीत गातीं, किलोल करती उड़ती दिखाई देती हैं, तो विभिन्न प्रकार के हिरणों के समूह, उछलते कूदते घास के मैदानों में चरते दिखते हैं। छोटे हिंस्र पशु सियार, कुत्ते, भेडिय़े शिकार को लोलुप दृष्टि से ताकते, भागते झुरमुटों में घुसते निकलते दिखते हैं तो कहीं सुन्दर सजीले मयूर, वनमुर्ग जैसे पक्षी फुदकते देखे जाते हैं। पोखरों में जंगली सुअर झुण्डों में जलक्रीड़ा करते हैं तो वन भैंसे अपने समुदाय में निर्भीक विचरण करते रहते हैं। कहीं दूर शेर, तेंदुओं की दहाड़ें सुन पड़ती हैं जो क्षणभर को सबका दिल दहला देती हैं पर पेट भर भोजन करने के बाद वही जानवर कहीं घनी झाड़ी में पसरकर सोते भी दिखाई देते हैं। उनमें मनुष्य की संग्रह की प्रवृत्ति के विपरीत निश्चिंत संतोष का भाव झलकता है। पशु-पक्षियों-वनस्पतियों के बीच निर्मल जलधारायें मार्ग में पाषाणों और चट्टानों पर कूदती उछलती अपने अज्ञात किन्तु सुनिश्चित लक्ष्य की ओर निरन्तर एक लालसा लिये बहती दिखती हैं जो दर्शकों को शांति के साथ ही अपने निर्णय के अनुसार सतत् आगे बढऩे की प्रेरणा देती हैं। इस प्रकार वन प्रदेश नई प्रेरणायें, कल्पनायें, स्नेह और सहयोग व संतोष की भावनायें तथा इस बहुरंगी प्रकृति के सर्जक के प्रति आभार व श्रद्धा की भावनायें उत्पन्न करती हैं। क्या ऐसा बहुमुखी लाभ व्यक्ति को अन्यत्र संभव है जहां समन्वय, सहयोग, श्रद्धा के भाव भी हों और मनोरंजन भी। आज की आडम्बरपूर्ण तथा कथित सभ्यता की भड़भड़ से पटे नगरों की तुलना तो प्राकृतिक सुषमा के पावन मंदिर वनों से बिल्कुल ही नहीं की जा सकती।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments