॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मन का संतुलित पोषण आवश्यक है ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

वर्तमान युग को ज्ञान विज्ञान या अंतरिक्ष का युग कहा जाता है। मनुष्य ने विज्ञान में बहुत सी उपलब्धियां की है। जो सुख-सुविधाओं का अंबार लगाती जा रही है। परन्तु यह भी सच है कि यह कलयुग है, जहां कलपुर्जों ने मनुष्य को विकल कर रखा है और कलह क्लेश भी बढ़ाये हैं। अनाचार, पाखण्ड और अधार्मिकता की भी प्रबलता के कारण धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस युग को कलयुग कहा जाता है। सुख-सुविधा के अपार उपकरणों की उपलब्धि और आपसी द्वेष कलह से मानव त्रस्त हो रहा है। धन प्राप्ति के लिये अनावश्यक स्पर्धायें बढ़ गई हैं। अत: जीवन में भारी आपाधापी है। समय की कमी है तथा अनाचार पाखंड और लूट खसोट व ठगी की घटनाओं की बाढ़ से मन का भय और समाज में आतंक बढ़ गये हैं। लोगों का मन अशांत एवं चिंतित रहता है। विकास और अविश्वास दोनों ही दिशाओं में नई-नई कठिनाईयां बढ़ती जा रही हैं।

ऐसा क्यों हो रहा है। जब इस पर चिंतन मनन करते हैं तो ध्यान में आता है कि मनुष्य में एक ओर संग्रह या परिग्रह की भावना बढ़ रही है और इसी से दूसरी ओर अनावश्यक हिंसा भी बढ़ी है। पुरानी कहावत है सादा जीवन उच्च विचार। आज के समाज में यह अमान्य सा हो गया है। आज देखने में तो इसके विपरीत यह आता है कि दिखावे के साथ जियो खूब खाओ पिओ सही सोच विचार अब बेकार हो गये हैं। ऐसे मनोभावों का बढ़ावा दिनोंदिन अधिक हो रहा है। आदमी का मस्तिष्क तो बढ़ा है पर मन असंवेदनशील हो गया है। सब अपने अपने में मस्त और व्यस्त हैं। दूसरों के दुख दर्द के प्रति न तो कोई सोच है और न ही चिंता। पहले व्यक्ति थोड़े में सुखी था खुद खाता-पीता था तो पड़ोसी की भी उतनी ही चिंता करता था, सबका हित करना मानव धर्म माना जाता था। इसीलिये चीटियों को व मछलियों तक को भोजन दिया जाता था। चिडिय़ों को दाना पानी दिया जाना अनिवार्य माना जाता था। आज आदमी अपने दरवाजे बंद रख सुबह से शाम तक सपरिवार धन की चाह में भाग दौड़ में लगा है। उसे किसी और की ओर निहारने की फुर्सत नहीं है। धन की लालसा में उसे असंवेदनशील और क्रूर बना दिया है। धन प्राप्ति के लिये वह हिंसा पर उतारू है। हिंसा में मानसिक शारीरिक और आत्मिक हिंसायें भी शामिल हैं। किसी को अकारण ही जान से मार डालना बहुत आसान लगता है विज्ञान में सुख सुविधायें बढ़ाई हैं पर हिंसा के सहज उपकरण भी तैयार किये हैं जिनके उपयोग से अपराधी वृत्ति के लोग  दूसरों को मारकर शायद अपना मनोरंजन होता पाते हैं। स्कूल कॉलेजों के विद्यार्थी भी अकारण ही आवेश में अपने साथियों पर प्रहार कर बैठते हैं। उन्हें समाप्त करने में अपना महत्व समझने लगे हैं। समाज में आतंकवादी पैदा हो गये हैं। जो बिना किसी सोच के बाजारों में, चौराहों में, निर्दोष लोगों की जान लेकर अपने अस्तित्व का प्रभुत्व शासन पर जमाने का प्रयास कर रहे हैं। क्या किसी को अकारण मारकर या धन लुटाकर किसी का कभी कुछ भला हो सकता है। किन्तु इस युग में यह साधारण सी समझ भी मनुष्य खो चुका है और इसके दुष्परिणाम सारा समाज बुरी तरह भोग रहा है।

      इन बुराइयों को दूर करने के लिये कानून कायदे भी कमजोर दिखाई देते हैं। मनुष्य का मन ही ऐसा प्रमुख साधन है जिससे वह जैसा सोचता विचारता है वैसा ही बनता है। अर्थात् मनुष्य खुद अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। मन से ही अनुशासन में रह सकता है या उच्छृंखल हो सकता है। मन पर संतुलन बनाये रखने के लिये स्वाभाविक रूप से ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिये जिससे सबका हित हो। पर आज इस ओर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा। यह शिक्षा विभिन्न कारणों से न तो परिवार से बच्चों को मिल पा रही है और न ही शासन के द्वारा विद्यालयों में उपलब्ध हो पाती है। इसीलिये सारी अव्यवस्था, अनुशासनहीनता और क्लेश का वातावरण है। मन यदि संयमित हो तो न परिग्रह की भावना बलवती हो और न ही हिंसा का भाव जागे। अत: सबसे बड़ी जरूरत मन के संतुलित संपोषण की है। तभी संसार में शांति और सुख संभव होगा। मानव जीवन सुखी हो सकेगा एवं देश की प्रगति हो सकेगी।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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