डाॅ. मीना श्रीवास्तव
☆ “१५ अगस्त – स्वतन्त्रता दिवस 🇮🇳” ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
मेरे प्रिय देशबंधुओं और बहनों,
आप सभी को ७६ वें स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ! 🙏🇮🇳💐
१५ अगस्त २०२३ को भारत की आजादी के ७६ साल पूरे होने पर यह कहना होगा कि, हमारा देश 76 साल का युवा बन गया है। जिन युवा स्वतंत्रता सेनानियों ने परतंत्र की बेड़ियों, उत्पीड़न और यातनाओं का अनुभव किया है और जो स्वतंत्रता संग्राम में जी-जान से लड़ रहे हैं, वे अब अधिकतर नब्बे और शतक की उम्र के होंगे। इन गिने चुने प्रत्यक्षदर्शियों को छोड़कर ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि जिस आजादी का हम आनंद ले रहे हैं, वह अनगिनत स्वातंत्र्यसैनिकों के बहाये खून का परिणाम है। कुछ नाम तो निश्चित रूप से नेताओं के हैं, अधिकांश गुमनाम रह गए, जिनके लिए मुझे महान मराठी कवि कुसुमाग्रज के शब्द याद आते हैं:
अनाम वीरा, जिथे जाहला तुझा जीवनान्त
स्तंभ तिथे ना कुणी बांधला, पेटली ना वात!
अर्थात – हे अनाम वीर, जहाँ तुम्हारे जीवन का अंत हुआ, वहाँ न किसीने विजयस्तम्भ बाँधा, न ही वहाँ कोई चिराग रोशन हुआ।
इस स्वतंत्रता दिवस का ‘समारोह’ बाकी सभी से क्यों और कैसे अलग है? हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने १५ अगस्त १९४७ को शून्य प्रहर को तिरंगा फहराया था| उनका विश्व प्रसिद्ध भाषण हर जगह उपलब्ध है। उसका एक वाक्य मुझे हमेशा याद आता है। नेहरूजी ने कहा था, ‘आज रात १२ बजे जब पूरी दुनिया सो रही होगी, भारत एक नया स्वतंत्र जीवन शुरू करेगा।’ शुरुआती कुछ सालों में इस नवोन्मेष में प्रगति का आलेख तेजी से ऊपर चढ़ते रहा| लेकिन इस तेजी का ज्वार जल्द ही थम सा गया| इस आशावाद पर भरोसा करना कठिन था कि, स्वतंत्रता सभी समस्याओं का समाधान कर देगी। नई बहू को जब तक घर की जिम्मेदारी नहीं मिलती तब तक वह बहुत जिज्ञासु रहती है। ‘मुझे राज्य तो मिल जाने दो, फिर देखना मैं क्या करती हूं’, कभी दिल में तो कभी होठों पर ये शब्द लाने वाली यहीं बहू, जिम्मेदारी का अहसास होते ही सास के जैसे कब व्यवहार करने लगती है, इसका उसे स्वयं भी पता नहीं चलता! यहीं बात बाद में शासकों को भी समझ में आ गई।
मित्रों, जब हम अपनी स्वतंत्रता के प्रति इतने सचेत हैं, तो कहीं हम दूसरों की स्वतंत्रता को रौंद तो नहीं रहे हैं? क्या इसका एहसास करना ज़रूरी नहीं है? एक रोजमर्रा का उदाहरण! सड़क के दोनों और जो छोटीसी जगह बनी होती है, उसे ‘फुटपाथ’ कहा जाता है, अच्छी तरह से रंग दिया हुआ वगैरा होने के कारण, पैदल चलने वालों को बहुत आसानी से इसके दूर से ही दर्शन हो जाते हैं। लेकिन भीड़-भाड़ वाले समय में इस जगह पर स्कूटर, मोटरसाइकिल आदि वाहनों का चतुराई से छिना हुआ कब्जा होता है। अफ़सोस, बेचारे कार वालों के लिए यह थोडीसी संकीर्ण सी रहती है! अब पैदल चलने वालों को कहाँ और कैसे चलना है, इसकी सीख कौन दे? संक्षेप में, ‘मेरी स्वतंत्रता तो मेरी है ही और तुम्हारी भी मेरी है’! संविधान ने मुझे जो अधिकार दिया है, वैसे ही वह दूसरों को भी दिया है, यह सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय चेतना कैसे आएगी, इस पर गंभीरता से विचार करना होगा!
जब हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं तो यह एक ‘इव्हेंट’ क्यों बन जाती है? लाउडस्पीकर कुछ निहित देशभक्ति के गीत प्रसारित करता रहता है। कभी-कभी छोटे-छोटे बच्चे स्कूलों में जाकर “आज़ादी” के बारे में भाषण दे रहे होते हैं, जो उनकी उम्र से काफी ‘बढ़चढ़’ कर होते हैं| उनकी स्मृति-शक्ति एवं शिक्षकों तथा अभिभावकों की कड़ी मेहनत की सराहना करना अति स्वाभाविक होना चाहिए! लेकिन साथ ही सम्बंधित बड़े बुजुर्गों का कर्तव्य होना चाहिए कि वे इन मासूम बच्चों को उस तालियाँ कमाने वाले भाषण का पूरा मतलब समझाएं! फिर यह तोते की तरह रटने की क्रिया से ऊपर उठकर वास्तव रूप में देशभक्ति होगी| कौन जाने इन्हीं में से कोई लड़का या लड़की राष्ट्रसेवा का व्रत लेकर सेना में भर्ती होने का सपना देखने लगे!
अंत में यहीं विचार मन में आता है, ‘इस देश ने मुझे क्या दिया?’ जिन्हें बार-बार यह सवाल परेशान करता है, वें ‘मैं देश को क्या दे रहा हूं?’ इस एक प्रश्न का उत्तर स्वयं को अत्यंत ईमानदारी से दें! बच्चे को शिक्षा देते समय माता-पिता उस पर केवल ५ से १० प्रतिशत ही खर्च करते हैं, बाकी सारा खर्च समाज वहन करता है। अगर हम याद रखें कि हमारे देश के गुमनाम नागरिक हमारी प्रगति में कितनी भागीदारी निभा रहे हैं, तो हमें कुछ हद तक इस आज़ादी की कीमत पता चल जाएगी!
फिर एक बार आजके पावन अवसर पर सबको अनेक बधाइयाँ,
धन्यवाद आपका! 🙏🇮🇳💐
© डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे
दिनांक १५ ऑगस्ट २०२3
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