ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1
श्री अरुण कुमार डनायक
(श्री अरुण कुमार डनायक जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.)
☆ चंपारण सत्याग्रह: एक शिकायत की जाँच ☆
शिकायत का अर्थ क्या है? किसी के अनुचित या नियम विरुद्ध व्यवहार के फलस्वरूप मन में होनेवाला असंतोष, उक्त असंतोष को दूर करने के लिए संबंधित अथवा आधिकारिक व्यक्ति से किया जानेवाला निवेदन, किसी के अनुचित काम का किसी के सम्मुख किया जानेवाला कथन, दंडित करवाने के उद्देश्य से किसी की किसी दूसरे से कही जानेवाली सही या गलत बात आदि को हम शिकायत के रूप में वर्गीकृत कर सकते है।
आज से सौ वर्ष पूर्व ऐसी ही एक जन शिकायत ने हमारे देश की दिशा व दशा बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाहित की। इस जन शिकायत को सुनने उसे स्वीकार करने, जाँच किए जाने का निर्णय लेने व जाँच प्रतिवेदन प्रस्तुत करने आदि का यदि समुचित अध्यन किया जाये तो हम शिकायत निराकरण के वास्तविक उद्देश्य को बखूबी प्राप्त कर सकते हैं। यह शिकायत चंपारण (बिहार) के किसानों के द्वारा महात्मा गांधी से की गई थी। चम्पारन गंगा के उस पार हिमालय की तराई में बसा हुआ है। चंपारण जिले में नीलवरों (निलहे गोरे) अंग्रेज प्राय: एकसौ बरसों से नील की खेती करवा रहे थे। प्राय: सारे चंपारण जिले भर में जहाँ कहीं नील की अच्छी खेती होती वहाँ अंग्रेजों ने नील के कारखाने खोल लिए, खेती की ज़मीनों पर कब्जा कर लिया था। चंपारण जिले के बहुत सेaर्कों का उपयोग कर निलहे गोरों ने इस प्रथा को कानूनी स्वरूप दे दिया था। प्रति बीघा पाँच कट्ठे या तीन कट्ठे क्षेत्र में किसानों को नील बोना ही पड़ता था। इसे पाँच कठिया या तीन कठिया प्रथा कहा जाता था। जो किसान नील की खेती करने से इंकार कर देते उन पर बहुत अत्याचार किए जाते। उनके घर व खेत लूट लिए जाते। खेत में जानवरों को चरने के लिए छोड़ दिया जाता। झूठे मुक़दमे में फसा दिया जाता। जुर्माना लगाया जाता। मार पीट की जाती।
जब गांधीजी दिसंबर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में शामिल हुये तब वहाँ चंपारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल उनसे मिले व वहाँ का हाल उन्हे सुनाया। अपनी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में गांधीजी लिखते हैं –“ राजकुमार शुक्ल नामक चम्पारन के एक किसान थे। उन पर दुख पड़ा था।यह दुख उन्हे अखरता था। लेकिन अपने इस दुख के कारण उनमें नील के इस दाग को सबके लिए धो डालने की तीव्र लगन पैदा हो गई थी। जब मैं लखनऊ काँग्रेस में गया तो वहाँ इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा। ‘वकील बाबू आपको सब हाल बताएंगे’ – यह वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चम्पारन आने का निमंत्रण देते जाते थे।“ बाद में गांधीजी की मुलाक़ात वकील बाबू अर्थात बृजकिशोर बाबू से राजकुमार शुक्ल ने करवाई । सभी ने गांधीजी से आग्रह किया कि निलहे गोरों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ वे एक प्रस्ताव कांग्रेस में प्रस्तुत करें। गांधीजी ने यह कहते हुये इससे इंकार कर दिया कि वे जब तक वहाँ की स्थिति देखकर और जाँच कर स्वयं को संतुष्ट नहीं कर लेते कोई प्रस्ताव प्रस्तुत नहीं करेंगे। उन्होने किसानों को शीघ्र ही चंपारण आने का आश्वासन दिया। गांधीजी अपनी आत्म कथा में लिखते हैं “ कहाँ जाना है, क्या करना है, और क्या देखना है, इसकी मुझे जानकारी न थी। कलकत्ते में भूपेनबाबू के यहाँ मेरे पहुँचने के पहले उन्होने वहाँ डेरा डाल दिया था। इस अपढ़, अनगढ़ परंतु निश्चयवान किसान ने मुझे जीत लिया था।“ गांधीजी कलकत्ता से राजकुमार शुक्ला के साथ अप्रैल 1917 में चंपारण के लिए रवाना हुये। गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण में निलहे गोरों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों व शोषण की शिकायत की जाँच में अपनाई गई प्रक्रिया आज भी प्रासंगिक है। उनके द्वारा चंपारण में की गई जाँच कार्यवाही निम्नानुसार चली।
- राजकुमार शुक्ला के साथ गांधीजी पटना में डाक्टर राजेंद्र प्रसाद के घर उनकी अनुपस्थिति में पहुँचे एवं राजेंद्र प्रसाद जी के नौकर ने उन्हे एक देहाती मुवक्किल समझ कर बड़ा रूखा व्यवहार किया, कोई आदर सत्कार नहीं किया। लेकिन इसे गांधीजी ने अन्यथा नहीं लिया और न ही राजेंद्र प्रसाद जी से बाद में मिलने पर कोई शिकवा शिकायत की।
- पटना से गांधीजी मुजपफरपुर होते हुये चंपारण जिले के मुख्यालय मोतीहारी 15 अप्रैल 1917 को पहुँचे। गांधीजी स्थानीय भाषा व बोली से अपरिचित थे। किसानों की बात ठीक ठीक समझी जा सके अत: उन्होने सहयोग के लिए आचार्य कृपलानी को अपने साथ ले लिया व ब्रजकिशोर बाबू एवं डाक्टर राजेंद्र प्रसाद आदि को बुलावा भेज दिया।
- चंपारण जिले के मुख्यालय में शुरू में गांधीजी एक वकील के घर में ठहरे। बादमें उन्होने एक बड़ा आहाता किराये पर लिया ताकि पीढ़ित किसान निर्भय होकर उनसे मिल सकें।
- गांधीजी चंपारण के किसानों की हालत व निलहे गोरों के विरुद्ध उनकी शिकायतों में कितनी सच्चाई है इसकी जाँच करना चाहते थे। किन्तु किसानों से संपर्क करने के पहले उन्होने यह आवश्यक समझा कि वे निलहे गोरों व जिले में पदस्थ अग्रेज़ सरकार के उच्च अधिकारी (कमिश्नर) से मिल ले। इस हेतु उन्होने निलहे गोरों की संस्था प्लांटर्स असोशिएशन व कमिश्नर दोनों को पत्र लिखा। यद्द्पि इन दोनों से उन्हे कोई विशेष सहयोग प्राप्त नहीं हुआ और उसकी जगह धमकियाँ मिली।
- गांधीजी मोतीहारी के पास स्थित एक गाँव जा रहे थे जहाँ एक किसान का घर निलहे गोरे द्वारा लूट लिया गया था, किंतु रास्ते में ही उन्हे कलेक्टर का आदेश मिला की वे जिला छोड़कर चले जाएँ। गांधीजी ने इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया।
- गांधीजी के चंपारण पहुँचने के बाद शिकायतकर्ता किसानों के दिल से डर ख़त्म हो गया। जो शोषित किसान अदालत जाने से भीं डरते थे वे गांधीजी के पास बहुत बड़ी संख्या में आकर निलहे गोरों द्वारा किए जा रहे शोषण, अत्याचारों व जुल्मों के बारे में बताने लगे। गांधीजी में उन्हे अपना उद्धारक दिखाई दिया।
- इस प्रकार चंपारण में जाँच कार्यवाही शुरू हो गई। 20-25 हज़ार किसानों के बयान दर्ज़ किए गए। बयानों से पता चला की जो जुल्म पूर्व में सुने गए थे हालात उससे भी बदतर थे।
- किसानों के बयान दर्ज करने का कार्य स्थानीय वकील करते थे। गांधीजी ने बयान दर्ज करने वाले वकीलों से कह रखा था कि बयान स्वीकार करने के पूर्व उसकी सत्यता को सुनिश्चित करने हेतु किसानों से आवश्यक प्रश्न जिरह आदि अवश्य करे ताकि कोई गलत बयानी न कर सके। जिसकी बात मूल में ही बेबुनियाद मालूम हो उसके बयान न लिखे जाएँ।
- बयान दर्ज करते समय यदि कोई विशेष सूचना मिलती तो उसे तत्काल ही गांधीजी के ध्यान में लाया जाता अन्यथा लिखित बयान समय समय पर गांधीजी को दे दिये जाते और वे उसका बड़ी बारीकी से अध्ययन करते।
- अनेक बार गांधीजी अपने सहयोगियों व किसानों को साथ लेकर पीढ़ित किसान के गाँव जाकर वस्तुस्थिति की प्रत्यक्ष जाँच भी करते।
- गांधीजी के नेतृत्व में चल रही इस जाँच कार्यवाही में अंग्रेजी सरकार के अधिकारी, कर्मचारी व खुफिया पुलिस अप्रत्यक्ष रूप से अड़ंगा डालने की कोशिश करते। गांधीजी ने इसे कभी भी अन्यथा नही लिया और न ही उनका कोई विरोध किया अथवा उन्हे कार्य स्थल से दूर चले आने को कहा।
- एक बार एक निलहे गोरे ने गांधीजी को प्रभावित करने के लिए अपने गाँव बुलाया व 3-4 किसानों से अपनी प्रसंशा करवाई। गांधीजी इससे कतई प्रभावित नही हुये उल्टे उन्होने अन्य उपस्थित किसानों से ही वास्तविकता की जानकारी ले निलहे गोरे व वहाँ उपस्थित अग्रेज़ सरकार के अधिकारी का मुख बंद कर दिया।
- जाँच कार्यवाही के दौरान जहाँ गांधीजी का व्यवहार शिकायतकर्ता किसानो के साथ सहानुभूतिपूर्ण था, वहीं उनके संबंध निलहे गोरों के साथ मित्रतापूर्ण थे। वे अक्सर उनका आतिथ्य स्वीकार करते थे और उनका पक्ष भी सुनते थे।
- प्रारंभ में गांधीजी चंपारण की स्थिति जानने के लिए वहाँ एक या दो दिन ही रुकना चाहते थे किन्तु विषय की व्यापकता व गंभीरता को देखते हुये वे काफी लंबे समय तक मोतीहारी में ठहरे व जाँच की कार्यवाही पूरी की। गांधीजी का मोतीहारी प्रवास अप्रैल 1917 से सितंबर 1917 तक रहा।
- इस जाँच का परिणाम यह हुआ कि सरकार ने एक कमीशन बनाया जिसमे किसानों के अलावा जमींदारों, मालगुजारो, निलहे गोरों के प्रतिनिधि भी शामिल किए गए। गांधीजी भी इसके सदस्य बनाए गए। कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने किसानों के पक्ष में अनेक फैसले लिए जिनसे निलहे गोरे भी सहमत हुये।
गांधीजी ने चंपारण जिले के गांवो के अपने दौरो से किसानों की इस दुर्दशा का कारण जानने का भी प्रयास किया। उन्होने पाया कि किसानों में गरीबी का एक कारण शिक्षा, स्वच्छता व स्वास्थ के प्रति जागरूकता की कमी है। इन कमियों के निराकरण हेतु उन्होने विशेष प्रयास कर प्रारंभ में छह गांवो में बालकों के लिए पाठशाला खोलने का निर्णय लिया। शिक्षण कार्य के लिए स्वयंसेवक आगे आए और कस्तूरबा गांधी आदि महिलाओं ने अपनी योग्यता के अनुसार शिक्षा कार्य में सहयोग दिया। प्रत्येक पाठशाला में एक पुरुष और एक स्त्री की व्यवस्था की गई थी। उन्ही के द्वारा दवा वितरण और सफाई के प्रति जागरूकता बढ़ाने का काम किया जाने लगा।
इस पूरी जाँच का नतीजा हुआ कि तीन/ पाँच कठिया व्यवस्था समाप्त हुयी व चम्पारन के किसानों को लगभग 46 प्रकार के करों से मुक्ति मिली। इस संबंध में आवश्यक कानून बनाने हेतु अंग्रेज सरकार पर दबाब पड़ा। निलहे गोरों का रौब ख़त्म हुआ। किसानों में हिम्मत आई। वे अब और जुल्म सहने के लिए तैयार नही थे। जब जुल्म बंद हो गया तो शोषण भी ख़त्म हो गया तो नील का कारोबार मुनाफे का व्यवसाय नहीं रह गया और निलहे गोरे धीरे धीरे कुछ ही सालों में अपनी चल अचल संपत्ति ,जमीन जायदाद, कोठियाँ आदि बेच चंपारण छोड़ कर चले गए। देश को डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे अनेक लगनशील नेता मिले। बिहार में शैक्षणिक, सामाजिक व राजनैतिक उत्तकर्ष की नई बयार बहने लगी।
© श्री अरुण कुमार डनायक
42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39