हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ गांधी जी के मुख्य  सरोकार ☆ डॉ.  मुक्ता

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

डॉ.  मुक्ता

(सम्माननीय डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  हम डॉ. मुक्ता जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने  अपना अमूल्य समय निकालकर ई-अभिव्यक्ति के इस विशेष अंक के लिए  “गांधी जी के मुख्य  सरोकार”  विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किये। )

 

गांधी जी के मुख्य सरोकार

 

गांधी जी आधुनिक भारत के वे अकेले नेता हैं, जो किसी एक वर्ग, एक विषय, एक लक्ष्य को लेकर नहीं  चले। वे जन-जन के नेता थे, करोड़ों लोगों के हृदय पर राज्य करते थे। सुप्रसिद्ध विद्वान और समीक्षक रामविलास शर्मा का तो यहां तक कहना है कि ‘ विश्व इतिहास में किसी एक व्यक्ति का इतना व्यापक प्रभाव कहीं भी, कभी भी नहीं देखा गया। वे भारतीय जन-जन की आशाओं,आकांक्षाओं को समझते थे। वे उन्हें अपनी और उनकी सांझी भाषा में व्यक्त करते थे। उनकी लोकप्रियता का यह एक महत्वपूर्ण उपादान था। उन्होंने जो कुछ भी कहा या किया, उसमें उनका लेशमात्र भी स्वार्थ या लाभ नहीं था। उनके प्रति जनता की अपार श्रद्धा तथा विश्वास का यह एक मुख्य कारण था।

ज्ञान, शिक्षा, कला, साहित्य, समाज-सुधार और देश को पराधीनता के बंधन से मुक्त करवाने के यह सभी आंदोलन विभिन्न क्षेत्रों, विभिन्न वर्गों और विविध विधाओं में आरंभ हुए। इन आंदोलनों ने असंख्य छोटे-बड़े स्तर के आंदोलनकारियों को जन्म दिया। राजा राममोहन राय से लेकर दयानंद सरस्वती, केशवचंद्र सेन, भारतेंदु आदि अनेक महान् व्यक्तियों के नेतृत्व में जाति व समाज के यह आंदोलन आगे बढ़े। इस आरंभिक अभ्युदय की अगली कड़ी में सर्वाधिक महत्वपूर्ण नाम आता है… मोहनदास करमचंद गांधी का, जिसने भारत की समग्रता को समझा और वे मुक्ति, विकास व कल्याण में प्रवृत्त हुए।

गांधी जी के चिंतन व निर्माण पर विश्व की विभिन्न विभूतियों का प्रभाव पड़ा। दूसरे शब्दों में वे उनसे अत्यंत प्रभावित थे। गांधीजी के सत्याग्रह की अवधारणा पर टॉलस्टॉय का प्रभाव था। उनका सर्वोदय आंदोलन रस्किन तथा ग्राम सभा या ग्राम पंचायत आंदोलन हेनरी मेनस से प्रभावित था। परंतु योग व वेदान्त, जो विशुद्ध भारतीय धरोहर थी,उसने वैचारिक व व्यावहारिक स्तर पर गांधी जी को प्रभावित किया और उन्होंने इसे केवल अपने जीवन में ही आत्मसात् नहीं किया, बल्कि समस्त मानव जाति को उसे अपनाने की शिक्षा भी दी। चलिए! इसी संदर्भ में उनके चंद मुख्य सरोकारों पर चर्चा कर लेते हैं।

साम्राज्यवाद : गांधीजी के सम्मुख साम्राज्यवाद मुख्य चुनौती थी और यह उनके संघर्ष का मुख्य सरोकार था, जिसका उन्होंने सर्वाधिक विरोध किया। देश की राजनीतिक व आर्थिक स्वतंत्रता के निमित्त उन्होंने साम्राज्यवाद को मुख्य बाधा स्वीकारा और जीवन में स्वदेशी अपनाने का संदेश दिया। इसके माध्यम से हमारा देश, विदेशी अर्थतंत्र से मुक्ति प्राप्त कर सकता था। यह एक ऐसी मुहिम थी, जिसे अपना कर हम विदेशी शोषण से मुक्ति प्राप्त कर सकते थे।

गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका में मज़दूरों के बीच रहने, काम करने, उन्हें संगठित करने व लंबे समय तक उस संघर्ष को संचालित करने का अनुभव था। उन्होंने भारत के गाँव-गाँव में जाकर छोटे किसानों व खेतिहर मज़दूरों से अपना भावनात्मक संबंध ही नहीं बनाया, उनके मनोमस्तिष्क को आंदोलित भी किया। इस प्रकार  वे उन्हें लंबे, कठिन संघर्ष के लिए प्रेरित कर सके और इसमें उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई।

जातीय व सांप्रदायिक समस्या: गांधी जी सांप्रदायिकता को मुख्य राष्ट्रीय अभिशाप स्वीकारते थे। हिंदू-मुस्लिम भेद व वैमनस्य उन्हें मंज़ूर नहीं था। वे इस तथ्य से अवगत थे कि जातीय परिपेक्ष्य में पंजाबी हिंदू व पंजाबी मुसलमानों की भाषा, साहित्य व संस्कृति सांझी थी, समान थी। भारत के हर प्रदेश व क्षेत्र के हिंदु व मुसलमानों के बारे में भी उनकी यही विचारधारा रही है। उनके विचार से मज़हब का भेद होने और पूरी मज़हबी स्वतंत्रता के होने पर, झगड़े का कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता। वे दोनों को समान रूप से भारतीय स्वीकारते थे।

गांधी जी हिंदी व उर्दू को एक ही भाषा के दो रूप स्वीकारते थे क्योंकि इसमें भेद केवल लिपि व थोड़ी- बहुत शब्दावली का रहा है। गांधी जी समस्या के बारे में सजग व सचेत थे। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने पर बल दिया। वास्तव में यह हिंदी की स्वीकार्यता का आग्रह था,जिसमें सामान्य व्यवहार की भाषा के रूप में क्लिष्ट संस्कृत व क्लिष्ट फारसी से मुक्त सामान्य भारतीय की घर-बाज़ार की भाषा (स्ट्रीट लैंग्वेज) की स्वीकृत का प्रयास था। इसके पीछे उनका मूल लक्ष्य था… राष्ट्रीय एकता की सुदृढ़ता व सांप्रदायिकता के  विष का निराकरण, ताकि देश में सौहार्द बना रह सके। आइए! इसी संदर्भ में हम उनकी भाषा नीति पर चर्चा कर लेते हैं।

भाषा नीति: गांधी जी की भाषा संबंधी आस्था ही उनकी भाषा नीति थी। गांधी जी जीवन के हर क्षेत्र में विभिन्न जाति-संप्रदाय, धर्म-मज़हब, विविध भाषा-भाषी लोगों में सामंजस्य स्थापित करनाचाहते थे। सो! उन्होंने विविध भाषा-भाषी लोगोंके बीच जाकर, उनकी भाषाओं को सम्मान दिया ताकि उनकी जातीय अस्मिता सुरक्षित रह सके। गांधी जी के मतानुसार ‘जातीय भाषा के माध्यम से उनकी संपूर्ण प्रतिभा, क्षमता व गौरव की  परिणति होती है, क्योंकि मानव अपनी मातृभाषा में सुंदर, सशक्त व सारगर्भित भावाभिव्यक्ति कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रादेशिक भाषाओं में शिक्षा, प्रशासन व साहित्य लेखन पर बल दिया क्योंकि भाषा वह निर्मल नदी नीर है, जो अपनी राह में आने वाली बाधाओं से उसका मार्ग अवरुद्ध नहीं होने देता। ऐसे स्वस्थ वातावरण में ही भाषाएं पूर्ण रूप से विकसित हो पाती हैं।

राष्ट्रीय संदर्भ में गांधी जी संपूर्ण भारत के लिए हिंदी को अंतर-जातीय, अंतर-क्षेत्रीय, अंतर-प्रादेशिक संपर्क भाषा के रूप में स्वीकारते थे।वे क्षेत्रीय व जातीय अलगाव के विरोधी थे…उनकी अस्मिता- अस्तित्व को महत्ता प्रदान करते थे। वे राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए जातीय अस्मिता के पक्षधर थे। वे भारतीय इतिहास व परंपरा के निमित्त हिंदी भाषा के राष्ट्रीय वर्चस्व को रेखांकित करते थे। गांधी जी के दृष्टिकोण को यदि मान्यता प्रदान की जाती, तो सत्तर वर्ष गुज़र जाने के पश्चात् भी हिंदी राजभाषा के रूप में ठोकरें न खा रही होती…वह राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान पा चुकी होती। देश में एक भाषा का प्रचलन होने से भारतीयता की पहचान बनती। परन्तु हिंदी को आज भी राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं हो सकी,जबकि तुर्की में वहां की भाषा को मातृभाषा को अपनाने का आदेश जारी करते हुए कहा कि ‘जिन्हें तुर्की भाषा को अपनाने में आपत्ति है, वे चौबीस घंटे में देश छोड़कर जा सकते हैं।’ इस प्रकार तुर्की भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त हो गया। परंतु हमारा देश आज तक ऐसा फरमॉन जारी करने का साहस नहीं जुटा पाया। जिस देश की मातृभाषा नहीं होती, वहां राष्ट्रीय एकता की दुहाई देना मात्र ढकोसला है। मां व मातृभाषा सदैव एक ही होती है…इससे सबका मंगल होता है। यदि गांधीजी की राष्ट्रभाषा नीति को लागू कर दिया जाता तो जातीय व क्षेत्रीय भाषाएं भी स्वाभाविक रूप से विकसित हो पातीं और दक्षिण भारतीय भाषाएं इसकी राह में रोड़ा न अटकातीं।

सामाजिक सुधार: गांधी जी सामाजिक कुरीतियों का निराकरण करना चाहते थे ताकि सांप्रदायिक सद्भाव बना रह सके, जिसमें प्रमुख था… छुआछूत का निराकरण। छुआछूत भारतीय समाज का कोढ़ है, जिसका विरोध उन्होंने अपने आश्रम व जीवन में दलितों के प्रति सम्मान, समानता व भाईचारे की भावना को दर्शा कर किया। हरिजन की परिकल्पना, शूद्रों के प्रति सामाजिक न्याय की अलख जगाकर, उन्हें समान धरातल पर स्थापित करना, जाति-पाति के नाम पर शोषण के निराकरण के अंतर्गत गांधी जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।इससे देश में राष्ट्रीय चेतना अभूतपूर्व रूप से जाग्रत हुई और सामाजिक सद्भावना ने ह्रदय की कटुता को सौहार्द में परिवर्तित कर दिया, जिससे देश में व्याप्त अशांति व उथल- पुथल को विराम की प्राप्ति हुई।

गांधी जी रोगी व निर्बल की सेवा को पूजा रूप में स्वीकारते थे…विशेष रूप से कुष्ठ रोगियों को अवांछित व परित्यक्त न मानकर ,उनकी सेवा को मानवता की सेवा स्वीकारते थे।

गांधी जी राजनैतिक नेता होने के साथ-साथ आदर्शवादी, धर्म-परायण, मूल्यों में आस्था रखने वाले, व्यावहारिक व बौद्धिक क्षमता की प्रतिमूर्ति थे। वे शोषण, समानता व अस्पृश्यता की समस्या को अर्थतंत्र से जोड़ कर देखते थे। वे जानते थे कि पूंजीवादी व्यवस्था किसान को मज़दूर बनने पर तो विवश तो कर सकती है, परंतु रोज़गार नहीं प्रदान कर सकती। इसलिए उन्होंने किसानों को बेरोज़गार मज़दूरों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए लघु उद्योग स्थापित करने तथा स्वदेशी अपनाने का सार्थक सुझाव दिया। वास्तव में यह उनमें आत्म- सम्मान जगाने का उपक्रम था, जो आत्मनिर्भरता का उपादान था। वे संगठन की परिभाषा से भली-भांति परिचित थे…जिसके लिए आवश्यकता थी, अपने भीतर की शक्तियों को पहचानने की। वैसे भी वे इस तथ्य से भी परिचित थे कि ज्ञान-विज्ञान द्वारा देश रूढ़ियों व अंधविश्वासों से मुक्त हो पाएगा। सो! वे स्त्री शिक्षा के भी प्रबल समर्थक थे तथा स्त्री-पुरुष में समानता का भाव चाहते थे, क्योंकि एक पक्ष के कमज़ोर होने पर समाज कभी भी उन्नत नहीं हो सकता।

गांधी जी भारतीय एकता के प्रबल साधक व सांप्रदायिक शक्तियों के विरोधी थे। अलगाववादी मुस्लिम नेतृत्व की कट्टरता व अड़ियलपन के कारण वे देश-विभाजन को रोक नहीं पाए। वहीं उनके राजनैतिक उत्तराधिकारिओं की स्वार्थपरता व नकारात्मकता भी इसके लिए उत्तरदायी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गांधी जी ने कांग्रेस के सर्वव्यापी आंदोलन को भंग करने और विभिन्न  विचारधाराओं के आधार पर,विभिन्न दलों के गठन का प्रस्ताव रखा, जिस पर अमल नहीं करने से, देश की यह दुर्गति-दुर्दशा हुई।

जहां तक भाषा का संबंध है, गांधी जी सरकारी कामकाज अंग्रेजी में बंद कर, हिंदी व प्रादेशिक भाषाओं के प्रति आग्रहशील थै। इसके साथ ही वे अछूत व सवर्ण के भेद को समाप्त कर, जातिगत विखण्डन को समाप्त करना चाहते थे, परंतु यह भी संभव नहीं हो पाया।

गांधी जी का स्वदेशी आंदोलन स्वालंबन का पक्षधर था… शोषण मुक्ति, अहिंसा, अध्यात्मिक नैतिक सोच व देश की शक्तियों की मुक्ति का समायोजन था। परंतु पाश्चात्य प्रभाव के कारण पराश्रिता बढ़ गई। गांधी जी की इच्छा थी कि धनी, जाग़ीरदार, पूंजीपति स्वयं को स्वामी नहीं, न्यासी (ट्रस्टी ) मानें तथा जनहित में प्रबंधक व दैवीय दूत (एजेंट) के रूप में निष्ठा से कार्य करें। इसी कड़ी में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के सफल न होने का कारण भी निष्ठा का अभाव था। इन विफलताओं का मुख्य कारण उनके शिष्यों-उत्तराधिकारियों की नासमझी, नैतिक दुर्बलता, स्वार्थपरता व नकारात्मक सोच थी, जिस पर गांधी जी नियंत्रण नहीं रख पाये।

गांधी जी मानवता, नैतिकता, सामाजिक- प्रतिबद्धता, व राष्ट्रीय-सामाजिक चेतना से संपन्न महान विभूति थे, जो जीवन पर्यंत जनहित में कार्यरत रहे…यही उन्हें विश्व में अद्भुत, विलक्षण व्यक्तित्व प्रदान करता है। गांधी जी के सरोकार, उनका संघर्ष व मानवतावाद हमें सामाजिक दायित्वों का स्मरण कराते हैं… हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं। सम्पूर्ण विश्व में गांधी जी की प्रतिमा का लगाया जाना, उनके संघर्ष व सकारात्मक सोच के प्रति नतमस्तक होना है। यदि देश उनके सरोकारों को हृदय से स्वीकारता तो ऐसा होता…उनके सपनों का भारत। गांधी जी के ही शब्दों में ‘मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि भारत उनका देश है… जिसके निर्माण में उनकी आवाज़ का महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें उच्च व निम्न वर्गों का भेदभाव नहीं होगा और जिसमें विविध संप्रदायों में मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार प्राप्त होंगे, जो पुरुषों को होंगे। शेष सारी दुनिया के साथ हमारा संबंध शांति का होगा। यह है …मेरे सपनों का भारत।’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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