हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने अपना अमूल्य समय देकर इस विशेषांक के लिए यह व्यंग्य प्रेषित किया.  आप एक अभियंता के साथ ही  प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. आपकी कई पुस्तकें और संकलन प्रकाशित हुए हैं और कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं. )

आलेख – गांधी की खादी आज भी प्रासंगिक ☆ 

 

बांधे गये रक्षा सूत्र के लिये भी  खादी के कच्चे धागे का ही उपयोग करते हैं . महात्मा कबीर ने तो

 

काहे कै ताना काहे कै भरनी,

कौन तार से बीनी चदरिया ॥

सो चादर सुर नर मुनि ओढी,

ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥

दास कबीर जतन करि ओढी,

जस कीं तस धर दीनी चदरिया ॥

पंक्तियां कहकर जीवन जीने की फिलासफी ही खादी की चादर के ताने बाने से समझा दी है. गांधी जी क़ानून के एक छात्र के रूप में इंग्लैंड में टाई सूट पहना करते थे, उन्होने खादी को कैसे और क्यों अपनाया, कैसे वे केवल एक धोती पहनने लगे यह जानना रोचक तो है ही, उनके सत्याग्रह के अद्भुत वैश्विक प्रयोग के मनोविज्ञान को समझने के लिये आवश्यक है कि हम जाने कि उन्होने खादी को अपनी ताकत कैसे और क्यो बना लिया.  1888 के सूट वाले बैरिस्टर गांधी 1921 में मदुरई में केवल धोती में दिखे, इस बीच आखिर ऐसा क्या हुआ कि बैरिस्टर गांधी ने अपना सूट छोड़ खादी की धोती को अपना परिधान बना लिया. दरअसल गांधी जी ने देश में बिहार के चंपारण ज़िले में पहली बार सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया था.गांधी जी जब चंपारण पुहंचे तब वो कठियावाड़ी पोशाक में थे.  एक शर्ट, नीचे एक धोती, एक घड़ी, एक सफेद गमछा, चमड़े का जूता और एक टोपी उनकी पोशाक थी.ये सब कपड़े या तो भारतीय मिलों में बने  या फिर हाथ से बुने हुए थे. ये वो समय था जब पश्चिम में कपड़ा बनाने की मशीने चल निकली थीं. औद्योगिक क्रांति का काल था. मशीन से बना कपड़ा महीन होता था कम इसानी मेहनत से बन जाता था अतः तेजी से लोकप्रिय हो रहा था. इन कपड़े की मिलो के लिये बड़ी मात्रा में कपास की जरूरत पड़ती थी. कपड़े की प्रोसेसिंग के लिये बड़ी मात्रा में नील की आवश्यकता भी होती थी. बिहार के चंपारण क्षेत्र की उपजाऊ जमीन  में अंग्रेजो के फरमान से नील और कपास की खेती अनिवार्य कर दी गई थी. उस क्षेत्र के किसानो को उनकी स्वयं की इच्छा के विपरीत केवल नील और कपास ही बोना पड़ता था. एक तरह से वहां के सारे किसान परिवार अंग्रेजो के बंधक बन चुके थे.

जब चंपारण के मोतिहारी स्टेशन पर 15 अप्रैल 1917 को  दोपहर में गांधी जी उतरे तो हज़ारों भूखे, बीमार और कमज़ोर हो चुके किसान गांधी जी को अपना दुख-दर्द सुनाने के लिए इकट्ठा हुए थे.इनमें से बहुत सी औरतें भी थीं जो घूंघट  और पर्दे से गांधी जी को आशा भरी आंखो से देख रही  थीं. स्त्रियो ने उन पर हो रहे जुल्म की कहानी गांधी जी को सुनाई, कि कैसे उन्हें पानी तक लेने से रोका जाता है, उन्हें शौच के लिए एक ख़ास समय ही दिया जाता है. बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से दूर रखा जाता है. उन्हें अंग्रेज़ फैक्ट्री मालिकों के नौकरों और मिडवाइफ के तौर पर काम करना होता है. उन लोगों ने गांधी जी को बताया कि इसके बदले उन्हें केवल एक जोड़ी कपड़ा दिया जाता है. उनमें से कुछ को अंग्रेजों के लिए यौन दासी के रूप में उपलब्ध रहना पड़ता है. यह गांधी जी का कड़वे यथार्थ से पहला साक्षात्कार था. गांधी जी ने देखा कि नील फैक्ट्रियों के मालिक निम्न जाति की औरतों और मर्दों को जूते तक नहीं पहनने देते हैं. एक ओर कड़क अंग्रेज हुकूमत थी दूसरी ओर गांधी जी में अपने कष्टो के निवारण की आशा देखती गरीब जनता थी,किसी तरह की गवर्निंग ताकत  विहीन गांधी के पास केवल उनकी शिक्षा थी, संस्कार थे और आकांक्षा लगाये असहाय लोगों का जन समर्थन था .गांधी जी  ने बचपन से मां को व्रत, उपवास करते देखा था, वे तपस्या का अर्थ समझ रहे थे. हम कल्पना कर सकते हैं कि हनुमान जी की नीति, जिसमें जब लंका जाते हुये सुरसा ने उनकी राह रोकी तो ” ज्यो ज्यो सुरसा रूप बढ़ावा, तासु दून कपि रूप देखावा,सत योजन तेहि आनन कीन्हा अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा ” के अनुरूप जब गांधी जी ने देखा होगा कि  उनके पास मदद की गुहार लगाने आये किसानो के लिये अंग्रेजो से तुरंत कुछ पा लेना सरल नही था. अंग्रेजो की विशाल सत्ता सुरसा के सत योजन आनन सी असीम थी, और उससे जीतने के लिये लघुता को ही अस्त्र बनाना सहज विकल्प हो सकता था.  मदहोश सत्ता से  याचक बनकर कुछ पाया  नही जा सकता था. जन बल ही गांधी जी की शक्ति बन सकता था. और पर उपदेश कुशल बहुतेरे की अपेक्षा स्वयं सामान्य लोगो का आत्मीय हिस्सा बनकर जनसमर्थन जुटाने का मार्ग ही   उन्हें सूझ रहा  था. मदद मांगने आये किसानो को जब गांधी जी ने नंगे पांव या चप्पलो में देखा तो उनके समर्थन में तुरंत स्वयं भी उनने जूते पहनने बंद कर दिए.गांधी जी ने 16 और 18 अप्रैल 1917 के बीच  ब्रितानी अधिकारियों को दो पत्र लिखे जिसमें उन्होंने ब्रितानी आदेश को नहीं मानने की मंशा जाहिर की. यह उनका प्रथम सत्याग्रह था.8 नवंबर 1917 को गांधीजी ने सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू किया.वो अपने साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर चंपारण पहुंचें. इनमें उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी, भी साथ थीं. तीन स्कूल  शुरू किए गये. हिंदी और उर्दू में  लड़कियों और औरतों की पढ़ाई शुरू हुई. इसके साथ-साथ खेती और बुनाई का काम भी उन्हें सिखाया जाने लगा. लोगों को कुंओ और नालियों को साफ-सुथरा रखने के लिए प्रशिक्षित किया गया.गांव की सड़कों को भी सबने मिलकर साफ किया. गांधी जी ने कस्तूरबा को कहा कि वो खेती करने वाली औरतों को हर रोज़़ नहाने और साफ-सुथरा रहने की बात समझाए. कस्तूरबा जब औरतों के बीच गईं तो उन औरतों में से एक ने कहा, “बा, आप मेरे घर की हालत देखिए. आपको कोई बक्सा दिखता है जो कपड़ों से भरा हुआ हो? मेरे पास केवल एक यही एक साड़ी है जो मैंने पहन रखी है. आप ही बताओ बा, मैं कैसे इसे साफ करूं और इसे साफ करने के बाद मैं क्या पहनूंगी? आप महात्मा जी से कहो कि मुझे दूसरी साड़ी दिलवा दे ताकि मैं हर रोज इसे धो सकूं.” जब  गांधी जी ने यह सुना तो उन्होने अपना चोगा बा को दे दिया था उस औरत को देने के लिए और इसके बाद से ही उन्होंने चोगा ओढ़ना बंद कर दिया.

सत्य को लेकर गांधीजी के प्रयोग और उनके कपड़ों के ज़रिए इसकी अभिव्यक्ति अगले चार सालों तक ऐसे ही चली जब तक कि उन्होंने लंगोट या घुटनों तक लंबी धोती पहनना नहीं शुरू कर दिया.1918 में जब वो अहमदाबाद में करखाना मज़दूरों की लड़ाई में शरीक हुए तो उन्होंने देखा कि उनकी पगड़ी में जितना कपड़ा लगता है, उसमें ‘कम से कम चार लोगों का तन ढका जा सकता है.’उन्होंने तभी से  पगड़ी पहनना छोड़ दिया. दार्शनिक विवेचना की जावे तो गांधी का आंदोलन को न्यूक्लियर  फ्यूजन से समझा जा सकता है, जबकि क्रांतिकारियो के आंदोलन को फिजन कहा जा सकता है. इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन का गणित, आत्मा की इकाई में  परमात्मा के विराट स्वरूप की परिकल्पना की दार्शनिक ताकत ही गांधी के आंदोलन का मूल तत्व बना.   किसानो के पक्ष में मशीनीकरण के विरोध का स्वर उपजा.31 अगस्त 1920 को खेड़ा में किसानों के सत्याग्रह के दौरान गांधी जी ने खादी को लेकर प्रतिज्ञा ली.उन्होंने प्रण लेते हुए कहा था,”आज के बाद से मैं ज़िंदगी भर हाथ से बनाए हुए खादी के कपड़ों का इस्तेमाल करूंगा.”, “उस भीड़ में बिना किसी अपवाद के हर कोई विदेशी कपड़ों में मौजूद था. गांधी जी ने सबसे खादी पहनने का आग्रह किया. उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा कि क्या हम इतने गरीब है कि खादी नहीं खरीद पाएंगे ?

गांधीजी कहते हैं, “मैंने इस तर्क के पीछे की सच्चाई को महसूस किया. मेरे पास बनियान, टोपी और नीचे तक धोती थी. ये पहनावा अधूरी सच्चाई बयां करती थी जहां देश के लाखों लोग निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर थे. चार इंच की लंगोट के लिए जद्दोजहद करने वाले लोगों की नंगी पिंडलियां कठोर सच्चाई बयां कर रही थी. मैं उन्हें क्या जवाब दे सकता था जब तक कि मैं ख़ुद उनकी पंक्ति में आकर नहीं खड़ा हो सकता. मदुरई में हुई सभा के बाद अगली सुबह से कपड़े छोड़कर और धोती को अपनाकर गांधी ने स्वयं को आम आदमी के साथ खड़ा कर लिया.”छोटी सी धोती और ह्थकरघे से बुना गया शॉल विदेशी मशीनो से बने कपड़ों के बहिष्कार के लिए हो रहे सत्याग्रह का प्रतीक बन गया.

यह गांधी की खादी की ताकत ही रही कि अब मोतिहारी में नील का पौधा महज संग्रहालय में सीमित हो गया है.इस तरह खादी को महात्मा गांधी ने अहिंसक हथियार बनाकर देश की आजादी के लिये उपयोग किया और ग्राम स्वावलंबन का अभूतपूर्व उदारहण दुनियां के सामने प्रस्तुत किया. खादी में यह ताकत कल भी थी, आज भी है. केवल बदले हुये समय और स्वरूप में खादी को पुनः वैश्विक स्तर पर विशेष रूप से युवाओ के बीच पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है.  खादी मूवमेंट आज भी रोजगार, राष्ट्रीयता की भावना और खादी का उपयोग करने वालो और उसे बुनने वालो को परस्पर जोड़ने में कारगर है.

खादी एक ईको फ्रेँडली  कपड़ा है. यह शुचिता व शुद्धता का प्रतीक है.खादी राष्ट्र के सम्मान का प्रतीक रही है. कभी महात्मा गांधी ने कहा था “हर हाथ को काम और हर कारीगर को सम्मान ” यह सूत्र वाक्य आज भी प्रेरणा है.  लगातार लोगो के बीच खादी को लोकप्रिय बनाने के लिये काम होना चाहिए.  खादी  बाजार फिर से पुनर्जीवित हो .  खादी बुनकरो का उत्थान,युवाओ तथा नई पीढ़ी में खादी के साथ ही महात्मा गांधी के  विचार तथा दृष्टिकोण का विस्तार कर और ग्रामीण विकास के लिये खादी के जरिये दीर्घकालिक रोजगार के अवसर बनाने के प्रयास जरूरी हैं. इन्ही उद्देश्यो से सरकार के वस्त्र मंत्रालय को कार्य दिशा बनाने की आवश्यकता है. प्रति मीटर खादी के उत्पादन में मात्र ३ लीटर पानी की खपत होती है, जबकि इतनी ही लम्बाई के टैक्सटाईल मिल के कपड़े के उत्पादन में जहां तरह तरह के केमिकल प्रयुक्त होते हैं, ५५ लिटर तक पानी लगता है. खादी हाथो से बुनी और बनाई जाती है, खादी लम्बी यांत्रिक गतिविधियो से मुक्त है अतः इसके उत्पादन में केमिकल्स व बिजली की खपत भी नगण्य होती है, इस तरह खादी पूरी तरह ईको फ्रेंडली है. जिसे अपनाकर हम पर्यावरण संरक्षण में अपना अपरोक्ष बड़ा योगदान सहज ही दे सकते हैं.

चरखे से सूती, सिल्क या ऊनी धागा काता जाता है. फिर हथकरघे पर इस धागे से खादी का कपड़ा तैयार किया जाता है. खादी के कपड़े की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इसकी बुनाई में ताने बाने के बीच स्वतः ही हवा निकलने लायक छिद्र बन जाते हैं. इन छिद्रो में जो हवा होती है, उसके चलते खादी के वस्त्रो में गर्मी में ठंडक तथा ठंडियो के मौसम में गर्मी का अहसास होता है, जो खादी के वस्त्र पहनने वाले को सुखकर लगता है. खादी के वस्त्र मजबूत होते हैं व बिना पुराने पड़े अपेक्षाकृत अधिक चलते हैं.प्रधानमंत्री मोदी जी ने भी अपने मन की बात में देश से कहा है कि हर नागरिक कम से कम वर्ष में एक जोड़ी कपड़ा खादी का अवश्य खरीदे. पर्यटन, योग, खादी का त्रिकोणीय साथ देश को नई प्रासंगिकता दे सकता है. विदेशी पर्यटक खादी को हथकरघे पर बनता हुआ देखना पसंद करते हैं. नये कलेवर में अब खादी में रंग, रूप, फैब्रिक, की विविधता भी शामिल हो चुकी है तथा अब खादी नये फैशन के सर्वथा अनुरूप है. लगभग नगण्य यांत्रिक लागत व केवल श्रम से खादी के धागे और उससे वस्त्रो का उत्पादन संभव है. इसलिये सुदूर ग्रामीण अंचलो में भी रोजगार के लिये सहज ही खादी उत्पादन को व्यवसाय के रूप में अपनाया जा सकता है. महिलायें घर बैठे इस रोजगार को अपनी आय का साधन बना सकती हैं.  खादी की लोकप्रियता बढ़ाई जावे, जिससे बाजार में खादी की मांग बढ़े और इस तरह अंततोगत्वा खादी के बुनकरो के आर्थिक हालात और भी बेहतर बन सकें. हम सब मिलकर खादी के ताने बाने इस तरह बुने कि नये फैशन, नये पहनावे के अनुरूप एक बार फिर से खादी दुनिया में नई  लोकप्रियता प्राप्त करे और विश्व में भारत का झंडा सर्वोच्च स्थान पर लहरा सकें.

विवेक रंजन श्रीवास्तव

A 1, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर

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