हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆ श्री मनोज मीता
ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1
श्री मनोज मीता
(सुप्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक श्री मनोज मीता जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है.आप अनेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं एवं सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सामाजिक सेवाएं प्रदान करते हैं. महात्मा गांधी पर केंद्रित लेखों से चर्चित.)
☆ दक्षिण अफ्रीका : मिस्टर बैरिस्टर एम. के. गांधी से गांधी बनाने की ओर ☆
गांधी, दक्षिण अफ्रीका बैरिस्टर एम.के. गांधी बन के गए थे पर वहाँ जाने के बाद वो धीर-धीरे जनमानस के गांधी बन गए। यह एक लम्बी प्रक्रिया है । गांधी वहां बाबा अब्दुल्ला के केस में वकील की हैसियत से गए थे पर समय के साथ गांधी वहाँ रह रहे काले कुली के वकील बन गए। गांधी, मोहन से महात्मा बनने की प्रक्रिया बचपन से ही शुरू हो गई थी। उस ब्रितानी सल्तनत जिसका कभी सूर्य अस्त नहीं होता था, उसपे ग्रहण, गांधी के सत्य-अहिंसा और सत्याग्रह के इस प्रयोग की शुरूआत दक्षिण अफ्रिका में ही हो चुकी थी। कुछ घटनाओं ने बैरिस्टर गांधी को जनमानस का गांधी बनाने में मदद की और यह प्रक्रिया शुरू हुई।
यह घटना 7 जून 1893 के एक सर्द रात की है। गांधी तभी बमुश्किल 23 वर्ष के एक बैरिस्टर थे। शायद तब के दक्षिण अफ्रीका के सबसे पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी या उनकी भाषा में कुली, वो डरबन से नेटल की यात्रा पे थे। इंगलैंड से पढ़ा लिखा बैरिस्टर प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अकेले बैठा सफर कर रहा था। उस बैरिस्टर को नेटल जाना था। रात्रि के 9 बजे के आसपास गाड़ी नेटल की राजधानी Pitarmaritjrbag पहुंची। ये एक हाड़ कंपा देने वाली सर्द रात थी। बैरिस्टर गांधी अपने आप में खोया नींद में ऊँघ रहा था कि तभी एक अंग्रेज प्रथम श्रेणी के उस डिब्बे में पहुँचा। बैरिस्टर गांधी सतर्क हो गया और अकेले इस यात्रा में एक सहयात्री को पा के खुश भी हो गया कि चलो आगे की यात्रा संग-संग होगी। वो अंग्रेज लापरवाह सा अपने हैट और ओवर कोट को प्रथम श्रेणी के डब्बे में लगे खुटी से टांग कर अपनी सीट की ओर मुड़ा, अचानक उसकी नजर बगल की सीट पर बैठे बैरिस्टर गांधी पे पड़ी, उसके चेहरे का रंग ही बदल गया। वो बिना कुछ कहे उतर गया। गांधी को अजीब सा लगा, पर उस सर्द रात और नींद ने गांधी को कुछ सोचने नहीं दिया। कुछ ही देर में वो अंग्रेज, रेलवे के दो अधिकारियों के साथ वापस आया। अधिकारियों ने आते ही बैरिस्टर गांधी को फरमान सुनाया कि आपको यह डिब्बा खाली करना होगा क्योंकि एक अंग्रेज किसी काले कुली के साथ सफर नहीं कर सकता है। गांधी ने कुली संबोधन पर प्रतिवाद किया और बताया कि वो एक बैरिस्टर है और अपने मुवक्किल के केस के सिलसिले में जा रहा है। पर उन रेल अधिकारियों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने अपना अंतिम निर्णय सुनाते हुए कहा कि आप बैरिस्टर हैं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, आप यहाँ से अपनी यात्रा माल डिब्बे में करें। बैरिस्टर गांधी ने कहा कि मेरे पास प्रथम श्रेणी का वैध टिकट है और मैं इसी टिकट से इस प्रथम श्रेणी के डिब्बे में डरबन से सफर कर रहा हूँ। मैं आगे भी इसी डब्बे में सफर करूँगा, बैरिस्टर गांधी ने दृढ़ता-पूर्वक कहा। अधिकारियों ने चेतावनी देते हुए कहा कि तुम इस डिब्बे को खाली करो नहीं तो हम पुलिस बुला लेंगे, पर गांधी टस से मस नहीं हुआ। अधिकारियों ने आवाज देकर पुलिस को बुला लिया और बैरिस्टर गांधी को सामान सहित प्लेटफार्म पे फेंकवा दिया। गांधी प्लेटफार्म पर गिरे तो प्लेटफार्म पर रखे बेंच का एक हिस्सा हाथ के पकड़ में आ गया, इस कारण गांधी का सर प्लेटफार्म के फर्श से टकराने से बच गया नहीं तो गांधी का सर निश्चित रूप से फट गया होता और चोट तो लगी ही थी। इस अप्रत्याशित अपमान की जगह गांधी को चोट के दर्द का पता नहीं चल रहा था। अपने बिखरे सामान के साथ गांधी प्लेटफार्म पे पड़ा था कि उस रेल अधिकारी ने पास आकर कहा तुम चाहो तो अब भी यहाँ से माल डिब्बे में आगे का सफर कर सकते हो, पर गांधी ने पुनः दृढ़ता-पूर्वक इंकार से सिर हिलाया। वो गांधी की तरफ उपहास की नजरों से देखते हुए चल दिए। गाड़ी भी गांधी को वहीं छोड़ आगे बढ़ गई। अकेला बैरिस्टर गांधी उस प्लेटफार्म पर रहा गया। प्लेटफार्म का अँधेरा दूर वेटिंग रूम से आ रही मध्यम पीली रौशनी दूर कर रही थी, पर गांधी का अपमान कौन दूर करेगा! गांधी अपने अपमान से जूझ रहा था। थोड़ी चेतना आने के बाद, गांधी उसी बेंच पर जिसने अधिक चोटिल होने से बचाया था, बैठ गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था, तभी गांधी को लगा कोई फुसफुसा के कह रहा है कि यहाँ बहुत ठंढी है, आप वेटिंग रूम में चले जाएँ। हम आपका सामान स्टेशन मास्टर के यहाँ रख देते है। गांधी को लगा की यह काल्पनिक है, पर वो अपना सामान वहीं छोड़ कर वेटिंग रूम चला गया। तेज दर्द, पहाड़ी शहर की सर्द हवा और अपमान ने गांधी को संज्ञा-शून्य बना दिया। गांधी का ओवर कोट भी सामान में ही रह गया था जो अब स्टेशन मास्टर के कमरे में बंद हो गया था। इन सभी से लड़ते हुए कब गांधी सो गए या मूर्छित हुए उन्हें पता नहीं। सुबह गांधी की नींद खुली तो देखा कि वो एक गंदे कम्बल से लिपटे हुए थे। तभी दो काले कुली समीप आए और कहा कि आप हाथ मुँह धो लें। हम आपका सामान ला देते हैं। गांधी ने उनसे पूछा क्या ये कम्बल तुम लोगों का है? उन्होंने कहा अगर यह कम्बल नहीं देते तो आप इस ठण्ड में मर ही जाते। गांधी ने वेटिंग रूम के नल से मुँह-हाथ धो लिया, वो कुली उनका सामान लेकर भी आ गए और साथ में यह भी कहा कि बाबू यहाँ तो हम कालों के साथ ये रोजमर्रे की बात है। पर गांधी अब अपने अपमान और दर्द से उबर चुके थे। उन्होंने पहला कम किया कि रेलवे के जनरल मैनेजर को एक लम्बा तार भेजकर अपने साथ किये गए दुर्व्यवहार की शिकायत की। दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में पहली बार रेल प्रशासन ने अपने अधिकारी द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के लिए किसी काले भारतीय से लिखित माफी मांगी।आज भी Pitarmaritjrbag स्टेशन पर यह लिखा है कि 7 जून 1893 की रात एम.के. गांधी को प्रथम श्रेणी के डिब्बे से यहीं बाहर धकेल दिया गया था। इस घटना ने गांधी के जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। यह घटना, गांधी को नस्लीय उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने की उर्जा दे गई।
यहाँ से गांधी दूसरी गाड़ी से चार्ल्स टाउन पहुँचे, वहाँ से आगे का सफर घोड़ा-गाड़ी से होनी थी क्योंकि इसके आगे रेल की सुविधा नहीं थी। घोड़ा-गाड़ी को वहाँ स्टेट कोच कहा जाता था। जिसको 6 से 8 घोड़े खींचते थे। स्टेट कोच का टिकट रेल टिकट के साथ ही हो जाता था। इस तरह गांधी एक दिन देर थे, पर इस टिकट पर कोई दिनांक नहीं लिखा था। गांधी उस टिकट को लेकर स्टेट कोच के मास्टर के पास गए और आगे के सफर की बात कही। स्टेट कोच के मास्टर ने कहा यह टिकट बेकार हो चुका है। यह किसी काम का नहीं, तुम इस टिकट पर अब सफर नहीं कर सकते। गांधी ने कहा कि इस तरह कह देने से नहीं होगा। आपको मुझे संतुष्ट करना होगा, साथ ही गांधी ने बाबा अब्दुल्ला का नाम भी लिया और कहा कि मेरे स्थगित यात्रा की सूचना आपको सेठ अब्दुल्ला ने तार से दी ही होगी। सेठ अब्दुल्ला उस क्षेत्र के एक बड़े व्यापारी थे और उनके मुलाजिम लगातार सफर करते रहते थे। मास्टर ने कहा ये कुली बहुत तंग करते हैं। गांधी ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि मैं एक बैरिस्टर हूँ। मास्टर ने गांधी को गौर से देखा और कहा नस्ल तो कुली का ही है। गांधी ने कहा नस्ल रंग से नहीं होता। अब मास्टर ने समझा कि ये व्यक्ति मुझसे अच्छा और फर्राटेदार इंगलिश बोलता है और कोट पेंट में भी है। इसका प्रभाव मास्टर पे पड़ा और उसने कहा ठीक है तुम सफर कर सकते हो पर तुम्हें मेरी जगह, कोचवान के पास बैठना होगा और मैं अन्दर बैठूँगा। गांधी को अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचना जरुरी था इसलिए तैयार हो गए। गांधी ने कोचवान के बगल में बैठ कर सफर शुरू कर दिया। खुले में सफर करना तेज ठण्ढ हवा गांधी को विचलित कर रही थी। बग्घी सुबह 3 बजे Pardikof पहुंची। तेज ठंडी हवा बह रही थी, कोच मास्टर ने गांधी को इशारे से नीचे आने को कहा। गांधी ने पूछा क्यों? मास्टर ने कहा मुझे सिगरेट पीना है। तो? गांधी ने कहा। कोच मास्टर ने कह तुम यहँ बैठो और उसने बग्घी के पांवदान की ओर इशारा किया। गांधी ने साफ इंकार कर दिया और कहा कि मैं अपने सीट पे हूँ और यहाँ से उठूँगा तो तुम्हारे सीट पे अन्दर बैठूँगा। एक कुली की ये मजाल! गांधी की बात गांधी के मुँह में ही रह गई। मास्टर ने गांधी पर हमला करते हुए ताबड़तोड़ घूँसे का बौछार कर दिया। गांधी इस अचानक हमले से गिरते-गिरते बचे। पर गांधी ने अपना सीट नहीं छोड़ा। गांधी ने कोच के राड को कस कर पकड़ रखा था। बग्घी में सफर कर रहे कुछ यूरोपियन यात्रियों ने बीच-बचाव किया नहीं तो मास्टर गांधी को मार ही देता। यह स्थिति थी दक्षिण अफ्रीका की। कोई भारतीय बोल नहीं सकता और गांधी ने बोलना शुरू किया था जिसका परिणाम गांधी पर हमले के रूप में हो रहा था। अपने गंतव्य पर पहुँचकर गांधी ने बिना किसी संकोच के अपने साथ घटी घटना को बताया और कहा कि मैं इसकी शिकायत करूँगा। वहाँ उपस्थित लोगों ने कहा हम कालों के साथ ये होता ही रहा है, पर हम कोई शिकायत नहीं करते। गांधी ने स्टेट कोच उपलब्ध कराने वाली कम्पनी में शिकायत दर्ज कराई और उसका सुखद परिणाम भी मिला। कंपनी ने गांधी को पत्र द्वारा सूचित किया कि कल जो यहाँ Staindatrn से जाने वाली बड़ी बग्घी में आप अन्य यात्रियों के साथ कोच के अंदर यात्रा करेंगे और जो मास्टर कल के सफर में था उसे हटा दिया गया है। ये वहाँ रह रहे भारतीयों के लिए अजूबा था कि किसी काले कीे शिकायत पर ऐसा निर्णय भी लिया जा सकता है। बैरिस्टर गांधी धीरे-धीरे जनमानस के गांधी बन रहे थे जिसके किये पे भारतीयों को गर्व हो रहा था और वो गांधी में अपने होने का सोच रहे थे।
© श्री मनोज meeta
संस्थापक, गांधी आश्रम, शोभानपुर, अमरपुर, बांका (बिहार)
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