श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “Father’s Day”।)
☆ आलेख ☆ Father’s Day ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विगत कुछ वर्षों से ये विदेशी मान्यताएं/ परम्पराएँ हमारी संस्कृति में कब घुस गई, पता ही नहीं चला। मदर्स डे, वेलेंटाइन डे इत्यादि जोकि पश्चिमी संस्कृति के अनुरूप और प्रासंगिक हैं। ये ऐसा धीमा जहर है, जो हमारी विरासत को धीरे धीरे खोखला कर रहा हैं।
बाज़ार में बिक्रीवाद को प्रोहत्सहित करने वाली शक्तियां पूरी ताक़त से हमारी सहनशीनता/ सहिष्णुता का फ़ायदा उठा कर हमारी संस्कृति को नष्ट करने पर उतारू हैं।
मुझे आश्चर्य होता है, हमारी उम्र के उन वरिष्ठजन से जो प्रतिदिन लंबे लंबे धार्मिक संदेश भेजने वाले भी फेस बुक, व्हाट्स ऐप पर फादर्स डे के संदेश भेजने में अग्रणी रहते हैं। परिवार की तीन पीढियां दादा, पिता और पुत्र के इस विदेशी त्यौहार को मानते हुए फोटो लगा कर गौरवान्वित महसूस करते हैं।
हमें ये सब करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी? हमारे यहां तो प्रतिदिन पिता के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेने की परंपरा हैं। ये पिता प्रेम के ढकोसले सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए हैं।
हमें किसी भी विदेशी सभ्यता / संस्कृति का विरोधी होने की ज़रूरत नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने समाज/ धर्म के अनुसार त्यौहार मानने चाहिए ।
हमारे अपने त्यौहार मौसम और वैज्ञानिक दृष्टि से कहीं बेहतर हैं । भेड़ चाल से बच कर अपने सिद्धान्त पर अडिग रहना चाहिए।
© श्री राकेश कुमार
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