हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * दरार * – डॉ. कुंवर प्रेमिल
डॉ कुंवर प्रेमिल
दरार
एक माँ ने अपनी बच्ची को रंग-बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर हरे-भरे दरख्त, एक हरी-भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से ऊगता सूरज और एक प्यारी सी हट। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियाँ बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई -‘ममा देखिये मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’
चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।
थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई – ‘ममा गज़ब हो गया, दादा-दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’
ममा की आवाज आई- आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो। दादा-दादी वहीं रह लेंगे।’
मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। हट के बीचों-बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है।
© डॉ कुँवर प्रेमिल
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