सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-1 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

“क्या आप जरा सामने जो घर है वहॉं जाकर उसमें झॉंककर देखेंगे? अपनी गृहस्थी के लिए, फिर अपने बेटे के लिए जिसने खून पसीना बहाया ऐसी एक थकी-मांदी बूढी माॅं अंदर होगी। देख लिया झॉंककर?”

” मुझे तो वहाॅं अंदर जाना है। मन कभी का जा पहूॅंचा है। लेकिन कदम लड़खड़ा रहे हैं। आगे जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा हूॅं, क्योंकि पुरानी यादें पीछा ही नहीं छोड़ रही। “

तब से मुझे याद आ रहा है, जब उसके बेटे की शादी तय हो गई थी। दो साल पहले की ही तो बात है, उस समय यह वृद्धा, थके शरीर से पर प्रसन्न मन से कमर कसकर सारा काम कर रही थी। और क्यों न करें?…. उसका अपने गृहस्थी का सपना तो अचानक टूट गया था। अब बेटे की शादी और उसके खुशहाली का सपना उसे  ऊर्जा दे रहा था।

तीन बेटियों के बाद घर में आया हुआ था यह बेटा !वे तीनों तो पैदा होते ही, ऑंखें खुलने से पहले ही चल बसी थी। …. तीनों आयी और इसके कलेजे को  जख्म देकर चल बसी। तब से उसके ऑंखों के आसू कभी सुखे ही नहीं। कभी उन जख्मों की याद से… कभी पति की बढ़ती बीमारी से दुखी होकर!… .पति तो चल बसे, … इस बेचारी को रोता बिलखता छोड़कर। …पर इसने हिम्मत नहीं हारी। पति के प्राइवेट नौकरी में आमदनी ही क्या थी ? कम खर्चे में गृहस्थी चलाकर जो पैसा बचाया था, वह भी पति की बीमारी में स्वाहा हो गया। ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। लेकिन खाना बनाने की कला बहुत जानती थी। हाथ में चकला- बेलन पकड़ा और औरों के रसोई घर बड़ी मेहनत से बहुत अच्छी तरह से संभाले। बेटे की पढ़ाई लिखाई पूरी हो गई और उसको बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई। इसके खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। यही सपना देख रही थी कि बस! अब दुख के, कष्ट के दिन खत्म हो गए। एक बार बेटे की शादी हो जाए…. फिर घर में आराम से चिंता मुक्त जिंदगी बिताऊॅंगी। … अब औरों के रसोई घर संभालने की  कोई जरूरत ही नहीं है।

जब बेटे की शादी हुई संतुष्टि की एक अत्यंत अप्राप्य  अनुभूति उसको स्पर्श कर गई। बहू का गृह प्रवेश हुआ। वह खुश थी, प्रसन्न थी।

बहू को प्यार भरी निगाहों से निहार रही थी, तभी उसने बहू के माथे की त्यौरियाॅं देखी  और जो समझना था समझ गई। उसी पल से  खुशी मानो भाग ही गई। मन से थक गई… शरीर तो पहले से जवाब देने लगा था। एक तो दोनों घुटनों में बहुत दर्द रहने लगा था। दोनों आंखों में मोतियाबिंदु बढ़ रहा था। फिर भी बहू का तमतमा सा चेहरा देखकर बात लड़ाई झगड़े तक ना आ जाए, इसी वजह से घर का सारा काम करती रही… थकी मांदी होने के बावजूद उसने बिस्तर नहीं पकड़ा।

“आप आ गए घर के अंदर झाॅंककर ? कैसी दिख रही है वह ?अकेली होगी पर कैसी लग रही है? “

असल में यह सवाल जब जरूरत थी तब बेटे के जेहन में उठना चाहिए था, जो उठा ही नहीं।

गृह लक्ष्मी की हॅंसी से वह खुश हो जाता था, …. वह रूठ जाए तो मुरझा जाता था। मानो, घर आई वह एक नाजुक गोरी मन मोहिनी परी थी। …

यह सिर्फ देखती ही रह गई। …

अपना बेटा और उसकी परछाई इसमें जो फर्क था, उसको वह समझ गई। शादी के साथ ही उसके पास सिर्फ बेटे की परछाई थी। … वैसे शुरू से ही बेटा मितभाषी था। हाॅं- ना, चाहिए- नहीं चाहिए… इतनी ही बातें …लेकिन अब तो माॅं के साथ उतनी बातें भी नहीं बची थी। माॅं के कष्ट, उसका कमजोर शरीर, घुटनों के दर्द की वजह से धीमे-धीमे चलना, इन सब की तरफ उसका ध्यान भी नहीं गया। …अब इसने बाहर के काम बंद किए थे लेकिन घर में एक मिनट का भी आराम नहीं था। वह सहनशीलता की एक मूर्तिमंत प्रतिमा थी। .. अपना दुख दर्द उसने किसको बताया तक नहीं।

घर में सिर्फ तीन जने, बेटा बहू और वह !बहुत अमीर नहीं थे लेकिन पैसे टके की कमी भी नहीं थी। नई-नई शादी, नई नवेली दुल्हन के साथ गृहस्थी की नयी नयी चीजों की शॉपिंग, पिक्चर, बड़े होटलों के खर्चे …सब कुछ अच्छे से चल रहा था। ड्रिंक, स्मोकिंग, क्लब, पार्टीयाॅं ….सब उनके जिंदगी का जरूरी हिस्सा बन गई थी। इसको उनके लाइफस्टाइल के बारे में कोई शिकायत नहीं थी। लेकिन बीवी की साड़ियाॅं, खुद के कपड़े खरीदते वक्त बदरंग, फटी साड़ीयाॅं पहनी हुई माॅं उन दोनों को कभी याद ही नहीं आयी। ….तब पहली बार उसके मन पर खरोंच आ गई।

**क्रमशः* 

मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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