सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-2 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(बीवी की साड़ियाॅं, खुद के कपड़े खरीदते वक्त बदरंग, फटी साड़ियाॅं पहन रही माॅं उन दोनों को कभी याद ही नहीं आयी। तब पहली बार उसके मन पर खरोंच आयी।) अब आगे…

वैसे भी उसका आहार बहुत कम था। लेकिन उसकी एक आदत थी। जो छोडे नहीं छुटती थी। जो उसने सालों से भूख मिटाने की दवाई के रूप में डाल रखी थी। वह थी चाय पीने की आदत। .. एक बार सुबह अच्छी अदरक वाली, और ज्यादा चीनी वाली चाय!… फिर दिन भर खाने को कुछ भी ना मिले कोई फर्क नहीं पड़ता था। बहू इस बारे में अनजान हो ऐसी भी कोई बात नहीं थी। यह रोज सुबह जल्दी उठती थी, अपनी और बेटे बहू की भी चाय बनाती थी।

एक दिन की बात…. रात देर से नींद आयी, सुबह जल्दी ऑंखें नहीं खुली। उसने रसोई में देखा पति-पत्नी दोनों की चाय बनी हुई थी। ब्रश किया, हाथ  पोंछती हुई  रसोई में आई। देखा, तो चाय का पतेला फिर गैस पर चढ़ा हुआ था। उसके सामने ही पतेला उतार कर उसके कप में पानी जैसी पतली चाय और ऊपर थोड़ा सा दूध डाला गया। वह समझ गई उन दोनों की चाय छानने के बाद छननी पर जो चाय पत्ती थी, उसमें ही पानी डालकर उसके लिए चाय उबाली गई थी। यहाॅं मन पर दूसरी बार खरोंच आयी। … मन लहू लुहान हो गया। मन कहने लगा, ‘बस्स, अब और नहीं!’

बेटे को आवाज दी, तब  ऑंखों में आंसू छलक रहे थे,

“क्या मैं इतनी गयी बिती  हो गयी हूॅं, की एक कप अच्छी चाय भी मेरे नसीब में नहीं है?”

” क्या हुआ?”

”  देखी यह चाय ?”

“हाॅं, देखी…आगे!”…

“देखो, एक बार चाय छानकर छननी पर पड़ी चायपत्ती से मेरी चाय बनाई गयी है। क्या इतने गरीब है हम लोग?  या तुम दोनों के लिये बोझ बन गई हूॅं मैं?”…..

वह कुछ भी नहीं बोला सिर्फ हल्के से त्योरियाॅं चढ़ाकर उसने बीवी की तरफ देखा। बीवी फटाक् से उठ खड़ी हुई, उसने तेजी से सास के सामने पड़ा हुआ चाय का कप उठाया, मुॅंह को लगायाऔर सारी चाय वह पी गई….. फिर कैची की तरह उसकी  जुबान चलती रही,

“कोई जहर देकर मार नहीं डाल रही थी तुम्हें। मेरी एक बात, एक चीज भी पसंद आती हो तो जानू! खुद अपने आप बनाकर क्यों नहीं पी? शरीर में जान नहीं है, फिर भी इतने नखरे! अगर हट्टी कट्टी होती तो रोज जूते की मार ही मेरे नसीब में होती। मानो जैसे आजतक अमृत पीकर जी रही थी, जो इस चाय को देखकर नाक भौ सिकुड़ रही है। “

…. बोलते बोलते उसका रोना भी शुरू हो गया। सामने घटित  तमाशा देखकर यह अपना अपमान, दु:ख भी भूल गई। बेटा खंबे जैसा खड़ा था।

यह उठकर अपने कमरे में जाकर लेट गई। दिन भर न पानी पिया न खाना खाया। पूरे दिन बेटा बीवी को प्यार से समझाता रहा।

शाम को माॅं के कमरे में झाॅंककर बोला,

“अम्मा जी, आपने यह क्या शुरू कर दिया है ?”

“मैंने शुरू कर दिया?”

” देखो अम्मा, मुझे घर में शांति चाहिए बस्स, बैठे ठाले तुम्हें दो वक्त की रोटी मिलती है। फिर भी तुम्हारा यह बर्ताव!थोड़े सब्र से, प्यार से रहने में तुम्हारी क्या चव्वल खर्च होती है ?”

खाली पेट उसने, बेटे से दो वक्त की रोटी  खिलाने का बड़प्पन सुना…. और वह गुस्से से आग बबूला हो गई। जोर से चिल्ला कर बोलना चाहती थी पर बोलते वक्त हाॅंपने लगी।

” कितना सब्र करूॅं?

जैसे तुम लोग जिलाओगे वैसे जिऊॅं? अपने मन की हत्या करके ?…  वह … तुम्हारी बीवी, बहू है मेरी, कोई दुश्मन नहीं है। दुश्मन के प्रति भी मैंने बुरा व्यवहार नहीं किया। जरूरत थी तब अपनी खुद की गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए मैंने चकला बेलन लेकर चार घरों में काम किया है। अब शरीर नहीं चल रहा है। कम से कम मेरे सफेद बालों की और सुखकर काटा हुए शरीर की  तो इज्जत.”…

“लेकिन अम्मा, “….

“मुझे दो वक्त के भोजन से मतलब नहीं है, ….. प्यार के दो शब्दों की भूखी हूॅं मैं! बुरे वक्त पर मैंने मेहनत की वह सिर्फ मेरे दो कौर रोटी के लिए नहीं। कभी दो समय का खाना मिला, कभी नहीं!  जो भी मिला वह पहले तुम्हें खिलाया। …. तुम्हें खिलाया- पिलाया, लिखाया- पढ़ाया, बड़ा किया, “…..

सुनते ही बहू तीर के समान अंदर आ गई।

“देखना मॉंजी, यह तो आपका कर्तव्य था। कोई एहसान नहीं किया। हम भी अपने होने वाले बच्चों के लिए ये सब करेंगे। कोई उनको कुडा घर में नहीं फेंकेंगे। “

“बहू तुम्हारी सारी बातों से दिल खुश हुआ। … इन सारे बातों से एक बात मेरी समझ में आ गई है कि मैं तुम्हें एक ऑंख नहीं सुहाती। …. कोई बात नहीं, जहाॅं काम करती थी वहाॅं भी इज्जत से रही, बेज्जती का जहर वहाॅं भी किसी ने मुझे नहीं परोसा। मैंने मेरे बेटे का पालन पोषण किया कोई एहसान नहीं किया…. सही बात है। लेकिन एक बात आप लोग भूल रहे हैं। अब जिम्मेवारी निभाने का, अपने कर्तव्य का पालन करने का, जिम्मा आपका। आप उसको नकार नहीं सकते। आपकी घर गृहस्थी आपको मुबारक!….. मेरे लिए कहीं पर एक किराए का कमरा ढूॅंढ लो। और जब तक शरीर में जान है तब तक खर्चे के लिए कुछ पैसे भेजते रहो। …. इसमें मेरे पर  एहसान जताने वाली कोई बात नहीं है। बेटा, … यह तुम्हारे प्रति मैंने निभाये कर्तव्य  का पुनर्भुगतान समझो। “…

” हाॅं जी हाॅं ऽ, भेजेंगे ना, यहां पैसों की खुदान है। …. या कोई गुप्त धन का भंडार हाथ लगा है?”

….बहू बोलते जा रही थी और बेटा सिगरेट सुलगाकर धुए के छल्ले पर नजर गढाए  बैठा था।

**क्रमशः* 

मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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