श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है कशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी द्वारा लिखित कहानी “शेरू का मकबरा भाग-1”. इस कृति को अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य प्रतियोगिता, पुष्पगंधा प्रकाशन, कवर्धा छत्तीसगढ़ द्वारा जनवरी 2020मे स्व0 संतोष गुप्त स्मृति सम्मान पत्र से सम्मानित किया गया है। इसके लिए श्री सूबेदार पाण्डेय जी को हार्दिक बधाई। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – शेरू का मकबरा भाग-1 ☆
दो शब्द रचना कार के – यों तो मानव जाति का जब से जन्म हुआ और सभ्यता विकसित होने से पूर्व पाषाणकाल से ही मानव तथा पशु पक्षियों के संबंधों पर आधारित कथा कहानियां कही सुनी जाती रही हैं। अनेक प्रसंग पौराणिक कथाओं मे कथा के अंश रुप मे विद्यमान रहे है तथा यह सिद्ध करने में कामयाब रहे हैं कि कभी मानव अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पशु पक्षियों पर निर्भर था। जिसके अनेक प्रसंग रामायण महाभारत तथा अन्य काव्यों में वर्णित है चाहे जटायु का अबला नारी की रक्षा का प्रसंग हो अथवा महाभारतकालीन कथा प्रसंग।हर प्रसंग अपनी वफादारी की चीख चीख कर दुहाई देता प्रतीत होता है।
इसी कड़ी में हम अपने पाठकों के लिए लाये हैं एक सत्य घटना पर आधारित पूर्व प्रकाशित रचना जो इंसान एवम जानवरों के संबंधों के संवेदन शीलता के दर्शन कराती है। आपसे अनुरोध है कि अपनी प्रतिक्रियाओं से अवश्य ही अवगत करायेंगे। आपकी निष्पक्ष समालोचना हमें साहित्य के क्षेत्र में निरंतर कुछ नया करने की प्रेरणा देती हैं।
पूर्वांचल का एक ग्रामीण अंचल, बागों के पीछे झुरमुटों के बीच बने मकबरे को शेरू बाबा के मकबरे के रुप में पहचानां जाता है। उस स्थान के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है कि संकट से जूझ रहे हर प्राणी के जीवन की रक्षा शेरू बाबा करते है और वे सबकी मुरादें पूरी करते हैं। हृदय में बैठा यही विश्वास व भरोसा आम जन मानस को प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के दिन शेरू बाबा के मकबरे की ओर खींचे लिए चला जाता है और श्रावण पूर्णिमा को उस मकबरे पर बडा़ भारी मेला लगता है।
आज श्रावणी पर्व का त्योहार है। गाँव जवार के सारे बूढ़े बच्चे नौजवान क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सारे के सारे लोग अपने अपने दिल में अरमानों की माला संजोए मुरादों के लिये झोली फैलाए शेरूबाबा के मुरीद बन उनके दरबार मे हाजिरी लगाने को तत्पर दीखते रहे हैं। मकबरे की पैंसठवीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। मेला अपने पूरे शबाब पर है। कहीं पर नातों कव्वालियों का ज़ोर है, तो कहीं भजनों कीर्तन का शोर। हर तरफ आज बाबा की शान में कसीदे पढ़ें जा रहें हैं।
आज कोई खातून बुर्के के पीछे से झांकती दोनों आंखों में सारे जहान का दर्द लिए दोनों हाथ ऊपर उठाये अपने लाचार एवम् बीमार शौहर के जीवन की भीख मांग रही है। तो वहीं कोई बुढ़िया माई अपने हाथ जोड़े, सिर को झुकाये इकलौते सैनिक बेटे की सलामती की दुआ मांग रही है। वहीं पर कई प्रेमी जोड़े हाथों में हाथ डाले पूजा की थाली उठाये शेरू बाबा के नाम को साक्षी मान साथ साथ जीने मरने कसमें खाते दिख रहे हैं।
इन्ही चलने वाले क्रिया कलापों के बीच सहसा अक्स्मात मेरे जेहन में शेरू बाबा की आकृति सजीव हो उठती है। और उसके साथ बिताए पल चलचित्र की तरह स्मृतियों में घूमने लगते है। मैं खो जाता हूं उन बीते पलों में और तभी वे पल मेरी लेखनी से कहानी बन फूट पड़ते हैं तथा शेरू के त्याग एवम् बलिदान की गाथा उसे अमरत्व प्रदान करती हुई पुराणों में तथा पंच तंत्र में वर्णित पशु पक्षियों की गौरव गाथा बन मानवेत्तर संबंधों का मूल आधार तय करती दिखाई देती है। मैं एक बार फिर लोगों को सत्य घटना पर आधारित शेरू का जीवनवृत्त सुनाने पर विवश हो जाता हूँ।
वो जनवरी का महीना, जाड़े की सर्दरात का नीरव वातावरण,कुहरे की चादर से लिपटी घनी अंधेरी काली रात का प्रथम प्रहर, सन्न सन्न चलती शीतलहर, मेरे पांव गांव से बाहर सिवान में बने खेतों के बीच पाही पर बने कमरे की तरफ बढे़ चले जा रहे थे, कि सहसा मेरे कानों से किसी श्वान शावक के दर्द में डूबी कूं -कूं की आवाज टकराई, जिसनें मेरे आगे बढ़ते क़दमों को थाम लिया। टार्च की पीली रोशनी में उसकी दोनों बिल्लौरी आंखें चमक उठी। मुझे ऐसा लगा जैसे उसे अभी अभी कोई उसे उस स्याह रात में बीच सड़क पर ठंढ़ में मरनें के लिए छोड़ गया हो।
उस घनी काली रात में जब उसे आस-पास किसी मानव छाया के होने का एहसास हुआ तो वह मेरे पास आ गया और मेरे पांवों को चाटते हुए, अपने अगले पंजों को मेरे पांवों पर रख लोटनें पूंछ हिलाने तथा कूं कूं की आवाजें लगाया था ऐसा लगा जैसे वह मुझसे अपने स्नेहिल व्यवहार का प्रति दान मांग रहा हो। अब उसके पर्याय ने मेरे आगे बढ़ते कदमों को थाम लिया था।
मैं उस अबोध छोटे से श्वानशावक का प्रेम निवेदन ठुकरा न सका था। मैंने सारे संकोच त्यागकर उस अबोध बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया तथा उसे कंधे से चिपकाते पुनः घर को लौट पड़ा था। वह भी उस भयानक ठंढ़ में मानव तन की गर्मी एवम् पर्याय का प्रतिदान पा किसी अबोध बच्चे सा कंधे पर सिर चिपकाये टुकुर टुकुर ताक रहा था। यदि सच कहूं तो उस दिन मुझे उस बच्चे से अपने किसी सगे संबंधी जैसा लगाव हो गया था।
उस दिन घर-वापसी में मेरे घर के आगे अलाव तापते मुझे देखा तो उन्होने बिना मेरी भावनाओं को समझे मेरे उस कृत्रिम की हंसी उड़ाई थी। उस समय मेरी दया करूणा तथा ममता उनके उपहास का शिष्य बन गई थी। लेकिन मैं तो मैं ठहरा बिना किसी की बात की परवाह किए सीधे रसोई घर में घुस गया और कटोरा भर दूध रोटी खिला उस शावक का पेट भर दिया। उसे अपने साथ पाही पर टाट के बोरे में लपेट अपने पास ही सुला दिया। वह तो गर्मी का एहसास होते ही सो गया।
उसके चेहरे का भोलापन तथा अपने पंजों से मेरे पांवों को कुरेद कुरेद रोकना मेरे दिल में उतर चुका था। उस रात को मैं ठीक से पूरी तरह सो नहीं सका था। मैं जब भी उठ कर उसके चेहरे पर टार्च की रोशनी फेंकता तो उस अपनी तरफ ही टुकुर टुकुर तकते पाता। मानों वह मौन होकर मुझे मूक धन्यवाद दे रहा हो।
मैं सारी रात जागता रहा था। भोर में ही सो पाया था। मैं काफी देर से सो कर उठा था। लेकिन जब उठा तो उसे दांतों से मेरा ओढ़ना खींचते खेलते पाया था।
मैं जैसे ही उठ कर खड़ा हुआ तो वह फिर मेरे पांव से लिपटने खेलने-कूदने लगा था। इस तरह उसका खेलना मुझे बड़ा भला लगा था। जब मैं घर की ओर चला तो वह भी पीछे पीछे दौड़ता हुआ घर आ गया था। मात्र कुछ ही दिनों में वह घर के हर प्राणी का चहेता तथा दुलारा बनाया था ।बाल मंडली का तो वह खिलौना ही बन गया था। वह बड़ा ही आज्ञाकारी तेज दिमाग जीव था। वह लोगों के इशारे खूब समझता और मुझसे तो उसका बड़ा विशिष्ट प्रेम था। घर की बालमंडली ने उसे शेरू नाम दिया था।
—– क्रमशः भाग 2
© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈