श्रीमती उज्ज्वला केळकर
☆ लघुकथा ☆ निर्णय ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆
भवन निर्माण कार्य जोर-शोर से चल रहा था। सुगिया वहा ईंट-गारा ढोनेके काम में लगी थी। हमेशा की तरह काम पूरा होने के बाद मुकादम के सामने पैसे लेने के लिए खड़ी थी। हिसाब देते हुए मुकादम ने एकबारगी उसका हाथ थाम लिया और बोला, ‘कितना नरम मुलायम है ये तेरा हाथ, एकदम मक्खन जैसा। ईंट-गारा ढोने के बावजूद भी कितना नाजुक…. चल मेरे साथ…सुगिया उसकी बदतमीजी सह न सकी। उसकी बात खतम होने से पहले ही उस के पंजे से हाथ छुड़ाकर वह घर की ओर दौड़ पड़ी।
झुग्गी में पहुँची तो मर्द को उसकी राह ताकते पाया। बिना दारू के उसका गला सूख रहा था। उस ने रोते हुए सारी घटना अपने मर्द से कह सुनायी। फिर … फिर क्या? वो तो बरस ही पड़ा उसके ऊपर। झापड, लात, घूसें… चप्पल लेकर भी पीटता रहा वो और बड़बड़ाता रहा, ‘हाथ पकडा तो क्या हुआ? क्या लूट गया? बडी आयी पतिव्रता।‘
उस दिन झुग्गी में बर्तन भूखे… पतीली, थाली भूखी… बच्चे भूखे… वो और पति भी भूखे…
दूसरे दिन सुगिया काम पर गई। आज रोजी लेते वक्त उसने स्वयं ही मुकादम का हाथ थाम लिया। चार दिन का पैसा कमर के बटुए में खोस लिया। मुकादम उसे बिल्डिंग के अधूरे हिस्से में ले गया, जो बिल्कुल वीरान था।
सुगिया घर लौटकर अपने बिस्तर पर लेटी। आज भी झुग्गी में बर्तन भूखे… पतीली, थाली, भूखी… बच्चे भूखे… वो और पति भी भूखे… बिस्तर पर लेटी हुई वो सोचने लगी, दोनों में क्या सहनीय? शराबी पति से मार खाना? या फिर मुकादम का बोझ उठाना, जो उसे नोच- नोच कर खाना चाहता है
© श्रीमती उज्ज्वला केळकर
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सोचनीय लघुकथा