श्री घनश्याम अग्रवाल
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा कोरोना की रोटी। )
☆ लघुकथा – कोरोना की रोटी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
रिपोर्ट पॉज़िटिव निकली। घर भर में सन्नाटा फैल गया । बूढे को अटैच -बाथरूम वाले छोटे से कमरे में 14 दिनों के लिए क्वारनटाइन कर दिया गया । बच्चों को उस कमरे से दूर रहने की हिदायत दे दी गई। बहू सुबह-शाम डरते-डरते चाय और दो वक्त का खाना दहलीज़ पर रख आती। फिर हाथों को सेनीटाइज कर लेती।
बूढे ने आज तीन में से दो ही रोटी खाई। बची हुई तीसरी रोटी का क्या करें ? जिसकी थाली तक नहीं छूते उसकी थाली की रोटी भला कौन खायेगा? कमरे में खिड़की नहीं थी वरना वह रोटी फेंक देता। क्या करे इस रोटी का? जी में आया बाहर जाकर गाय या किसी भिखारी को दे दूँ । पर पॉज़िटिवों के लिए तो घर की दहलीज़ 14 दिनों के लिए लक्षमण रेखा बन जाती है। 14 दिनों तक तो रोटी पड़े-पड़े सड़ जायेगी । आखिर उसने रोटी को कमरे के बाहर रख सबको सुनाते हुए कहा- ” ज्यादा की बची रोटी बाहर रखी है, तुम लोग तो खाओगे नहीँ । बाहर किसी को दे दो। रोटी बेकार नहीँ जानी चाहिए ।” और दरवाजा बंद कर दिया ।
“अब इनकी जूठी रोटी को कौन हाथ लगाये ? अब फिर उस कमरे तक जाना होगा। बूढ़ा भी है न…,” ऐसा नहीं कि बहू ससुर की इज्जत नहीं करती थी। कोरोना का भय ही कुछ ऐसा था। आखिर भुनभूनाती बहू ने चिमटे के सहारे रोटी को अखबार मैं लपेटकर घर के फाटक की ओर बढ़ी। गली में सन्नाटा था। रोटी को सड़क पर फेंकने में हिचक हो रही थी। किसीने देख लिया तो…..? ‘ कचरापेटी भी घर से दूर थी। अचानक उसे एक बूढा भिखारी हाथ पसारे दिखाई पड़ा । उसने उसे रोटी दिखाते अपने पास बुलाया । लॉकडाउन की वजह से दो दिनों का भूखा भिखारी रोटी देख तेजी से उसकी ओर बढ़ा। आखिर भिखारी में भी जान होती है। कहीं इसे खाकर वो भी…,”, नहीं-नहीं । भिखारी जब पास आया तो वो बोली -” यह कोरोना पॉज़िटिव की जूठी है ।- इसे खाना मत । इसे नुक्कड़ के कचरापेटी में फेंक देना।” कहते हुए बहू ने एक पाँच का सिक्का और रोटी उसे दे दी।
कोरोना का इतना भय और चर्चा थी कि भिखारी तक कोरोना के बारे में कुछ-कुछ जानने लगे थे। मैं अब इस रोटी को नही खाऊँगा।अब इस कोरोना रोटी को कचरापेटी में डाल कर, इन पांच रुपयों से रोटी खरीदकर खाऊँगा । इस सोच से उसकी चाल में एक सेठपन आ गया । जिन्दगी में पहली बार रोटी खरीद कर जो खाने जा रहा था।
मगर कचरापेटी तक आते-आते उसे खयाल आया, इस लॉकडाउन में उसे रोटी कहाँ मिलेंगी ? सारी होटलें तो बंद होगी। उसके हाथ रोटी को फेंकते-फेंकते रुक गये। इधर उसे कोरोना का डर भी सता रहा था, और उधर रोटी को देख उसकी दो दिन की भूख चार दिन की हो गई थी। पता नहीं कब लॉकडाउन खत्म होगा, कब उसे रोटी मिलेगी ? पेट की भूख कोरोना के डर पर भारी पड़ने लगी।
वह रोटी को बिलकुल अपनी आँख के करीब लाकर गौर से देखने लगा। फिर रोटी को पलटकर भी उसी तरह गौर से देखा। कहीं कोई वायरस नजर नहीं आया । माना वायरस अति सूक्ष्म होते हैं, पर होते तो हैं । एकाध तो दिखाई पड़ता। फिर उसने रोटी को दो बार जोर से झटका। एकाध होगा तो गिर गया होगा। उसने फिर रोटी को देखा। अरे, जब कोरोना पाँजिटिव और निगेटिव दोनों ही रोटी खाते हैं तो फिर रोटी निगेटिव-पॉज़िटिव कैसै हो सकती है ? रोटी सिर्फ रोटी होती है। वह खुद को समझाने लगा। फिर भिखारियों को तो कोरोना होता नहीं। उसने आज तक किसी भिखारी को कोरोन्टाइन होते नहीं देखा। भूख ने रोटी खाने के सारे तर्क जुटा लिये थे। रोटी को वह मुँह के करीब ले आया। फिर भी मुंह खोलने की हिम्मत नहीं हो रही धी। । कहीं कोई एकाध वायरस…. ,
अचानक उनकी आँखे चमक उठी। वह रोटी को पुनः झटकते हुए इस इतमिनान के साथ रोटी खाने लगा…, ” स्साला, इसके बावजूद एकाध वायरस पेट में चला भी गया तो क्या ? इस रोटी से इतनी इम्युनिटी तो मिल ही जायेगी,कि वह उस वायरस को मार सके।
अब वह प्रसन्न हो, इस रोटी को ऐसे खा रहा था, जैसे वो सिर्फ कोरी रोटी नहीं, बल्कि सब्जी के साथ रोटी खा रहा है।
© श्री घनश्याम अग्रवाल
(हास्य-व्यंग्य कवि)
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