श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ असहमत…! भाग – 14 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आज बहुत दिनों के बाद असहमत की फिर से तफरीह करने की इच्छा हुई तो उसने विजयनगर या संजीवनी नगर की ओर जाने का प्लान बनाया. पर उसके प्लान में बनने वाले फ्लाई ओवर ने उसे गड्ढों की गहराई मेंं उतार दिया. जबलपुर वालों को दिये जाने वले झुनझुनों में ये भी एक है जिसके आभासी वीडियो देख देख कर लोगों के सीने 36″ से 63″ हो गये और उन्होंने वाट्सएप पर जबलपुर के मूल निवासियों को “Dream project of dream city ” के टाइटल से भेजना शुरु कर दिया. ये संदेश भोपाल, इंदौर, भिलाई, रायपुर, पुणे, मुंबई, जयपुर, दिल्ली जब पहुंचे तो पाने वालों की पहले तो नज़र लाला रामस्वरुप के 70-71-72 वाले कैलेंडर पर गई (लोग कहीं भी रहें पर प्राय: ये केलेंडर तो उनके घर में मिल ही जाता है जो रोज याद दिलाता रहता है कि जबलपुर की पहचान रूपी ये केलेंडर अभी भी बेस्ट है) पर वहां अप्रैल नहीं जुलाई चल रहा था. भेजने वाले को तुरंत ब्लाक करने की लिखित चेतावनी दी गई. इसके पहले भी किसी वाट्सएप ग्रुप के जन्मदिन की शानदार पार्टी  के फर्जी निमंत्रण भेजे गये थे. पर चूंकि पार्टी का वेन्यू गुप्त था और निमंत्रण में आने जाने रुकने तथा स्टार्टर पेय पदार्थों का कहीं कोई जिक्र नहीं था तो “delete for all” के जरिये ये मैसेज़ भी वीरगति को प्राप्त हुआ.

तो फ्लाई ओवर  के सपनों रूपी जर्जर रास्तों को छोड़कर असहमत शार्टकट पकड़ने के चक्कर में विजयनगर और संजीवनी नगर के बदले जानकीनगर पहुंच गया. वहां कुछ भूतपूर्व बैंकर पर वर्तमान में भी अलसेट देने में सक्षम स*ज्जनों ने असहमत को पकड़ ही लिया. सवाल जवाब का सिलसिला शुरु हो गया.

“बहुत हीरो बनते हो,  ग्रुप का भी क्या बर्थडे मनाया जाता है. ये कैसा जन्मदिन है, न बर्थडे केक, न पार्टी.

असहमत : सब वर्चुअल है, आभासी, रियल कुछ नहीं है. पार्टी नही है तो गिफ्ट भी नहीं है. ये सब हवाई किले हैं जो सोशल मीडिया पर चलते हैं. कोरोना लॉकडाउन पार्ट वन में भी तो लोगों ने बहुत सारी रेसेपी शेयर कर डाली जो कभी रियल लाईफ में नहीं बनी. जब सब कुछ बंद था और लोग सोचसमझ कर मितव्ययता से खर्च कर रहे थे तो ये सब कौन बना सकता था.

एक सज्जन को पुराना जमाना याद आ गया जब अखबार और पैट्रोल का खर्च बैंक बिल के आधार पर देती थी. तो reimbursement के लिये The Economic Times के बिल, उसकी मुद्रित प्रतियों से भी ज्यादा नंबर के बन जाते थे. पता चला कि शहर में तो मुश्किल से 50 कॉपी आती थीं और 100 लोग बिल के बेस पर क्लेम करते थे. कभी कभी डी.ए.नहीं बढ़ता था पर पैट्रोल के रेट बढ़ जाने से बजट संतुलित रहता था. मैन्युअल बैंकिंग के जमाने में जब स्टाफ का लेजर अलग होता था तो लेज़र का ग्रैंड टोटल कभी भी ग्रैंड नहीं होता था. जिनकी OD limit होती  तो नीली स्याही में बेलैंस सिर्फ सपनों में आता था. सुना जरूर गया कि किसी जमाने में ओवरटाईम सबसे बेहतर टाईम हुआ करता था और बोनस किसी डिटरजेंट टिकिया का नाम नहीं होता था बल्कि हर साल परिवार के सदस्यों द्वारा देखा जाने वाला वो सपना था, जो चमकते दमकते फ्लाई ओवर जैसा ही आभासी हुआ करता था. टेक्नालाजी न तो साइंस है न इंजीनियरिंग, ये हमारे पास वह होने या पाने का आभास देती है जो हमें वर्तमान की कड़वाहट को गुड़ की आभासी चाय से कुछ पलों के लिये दूर कर देती है. यही तो जिंदगी है जब सपनों में पाने का सुख, हकीकत में न होने के दुख पर भारी पड़ता है और हम कोई गालिब तो है नहीं जो ये कह दें कि “हमको मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है.”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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