डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ लघुकथाएं – [1] बुद्धिजीवी [2] अपने बिल में ☆ डॉ. हंसा दीप 

☆ बुद्धिजीवी ☆

बस चली जा रही थी। अगले स्टॉप पर कुछ देर रुकी तो एक बहुत बूढ़ी महिला बस में चढ़ी। चूँकि कोई सीट खाली नहीं थी अत: वह डंडा पकड़े खड़ी रही। उसके पास वाली सीट पर एक बुद्धिजीवी-सा नवयुवक बैठा था। वह देख रहा था कि बस के बार-बार हिचकोले खाने से बुढ़िया को बड़ी दिक्कत हो रही थी। बेचारी बमुश्किल स्वयं को गिरने से बचा पा रही थी। उसने सोचा वह खड़ा हो जाए और बुढ़िया को बिठा दे पर न जाने क्यों वह उठा नहीं। सोचा, वह तो इतनी दूर से आ रहा है, वह क्यों उठे! और दूसरे यात्री भी तो हैं क्या कोई भी उसे बिठा नहीं सकता!

ऊँह बिठाना चाहता तो अब तक कोई बिठा ही देता, क्यों न वह ही उठ जाए! बिल्कुल, अब वह उठेगा और बुढ़िया को बिठा ही देगा। वह मन ही मन कई बार दुहरा चुका कि बुढ़िया से कहेगा– “माँजी आप बैठो…” और जब वह खड़ा होगा तो बस के सारे यात्री निश्चित ही उसकी दया से प्रभावित होंगे। सोचेंगे, कितना दयालु है यह! वह सोचता ही रहा और सोचते-सोचते उसे झपकी लग गयी। आँख खुली तब तक बुढ़िया उतर चुकी थी।

☆ अपने बिल में ☆

समर्थ जी बहुत खुश हैं। पिछले बीस सालों से विदेश में रहकर हिन्दी की सेवा कर रहे हैं परन्तु इन दिनों उनकी सेवा लोगों को दिखाई दे रही है। फेसबुक पर उनके पूरे पाँच हजार फ्रेंड्स हैं। पहले तो भारत जाकर रिश्तेदारों से मिल-मिला कर आ जाते थे पर इन दिनों भारत यात्रा की बात ही कुछ और है। फेसबुक के मित्र उनके लिये सम्मान समारोह रखते हैं। अब हर साल की एक भारत यात्रा पक्की कर ली है जिसमें कम से कम पच्चीस सम्मान समारोह न हो तो जाने का आनंद ही क्या! भारत से जब लौटते हैं तो अगली यात्रा के इंतज़ार में कई फूल मालाओं का वजन गर्दन पर महसूस होता रहता है। यहाँ की ठंड में मफलर पहनते हैं तो लगता है यह मफलर नहीं वे ही फूल हैं जो उन्हें इस ठंड में गर्मी दे रहे हैं। 

इस बार उन्हीं मित्रों में से एक मित्र अनादि बाबू विदेश की सैर पर आए। अनादि जी की दिली इच्छा थी कि जैसा सम्मान उन्होंने अपने मित्र समर्थ जी का भारत में किया वैसा ही शानदार कार्यक्रम अनादि बाबू के लिये यहाँ किया जाए। बस यहीं आकर समर्थ जी फँस गए क्योंकि वे जानते थे कि उनके अपने शहर में उनकी कितनी इज्जत है, उन्हें कोई घास तक नहीं डालता। अब वे फूलों के हार उन्हें गले में लिपटे साँप की तरह भयानक लग रहे थे व फूँफकारते हुए साँप उन्हें बिल में घुसने के लिये मजबूर कर रहे थे।

☆☆☆☆☆

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments