श्री विजय कुमार
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी की एक विचारणीय लघुकथा “एक पंथ कई काज“।)
☆ लघुकथा – एक पंथ कई काज ☆
“क्या बात, आजकल कार से काम पर आ-जा रहे हो। मजे ही मजे, आराम ही आराम, शान ही शान और मान ही मान है अब तो।” दोस्त आशुतोष ने कटाक्ष करते हुए कहा।
नसीब समझ गया। आशुतोष को फिजूलखर्ची से चिढ़ थी। शायद उसका कार में आना-जाना उसे फिजूलखर्ची लग रहा था। नसीब ने हंसकर कहा, “बेशक कार से आने जाने में मजा और आराम तो है ही, लोग इसे शान की सवारी कहते हैं, तो आदर-मान भी पूरा देते हैं। परंतु इसके साथ-साथ मेरे लिए और भी कई कारण हैं कार से आने-जाने के। हालांकि तुम जानते हो कि जब तक जरूरी ना हो मैं ऐसी चीजों पर खर्चा नहीं कर सकता।”
“और क्या कारण हैं भई, हम भी तो सुने?” आशुतोष थोड़ी-सी गंभीर मुद्रा में बोला।
“तुम तो जानते हो कि जब से मेरा बायाँ पैर दुर्घटनाग्रस्त हुआ है, मैं ठीक से पैर नीचे नहीं लगा पाता हूँ। तो स्कूटर-मोटरसाइकिल से कहीं आते-जाते समय परेशानी रहती है। इसलिए मैंने कार से आने जाने का निर्णय लिया है।” नसीब ने स्पष्ट किया।
“बात तो तुम्हारी सही है यार, एक-डेढ़ लाख के नीचे तो तुम पहले भी आ गए थे जब तुम्हारे साथ यह दुर्घटना हुई थी।” आशुतोष बात का समर्थन करते हुए बोला।
“इसके इलावा जैसा कि तुम जानते ही हो कि मैं कई सामाजिक संस्थाओं से भी जुड़ा हुआ हूं, और मुझे सामाजिक और कल्याणकारी कार्य करने का भी शौक है। तो मुझे बहुत सा साजो-सामान अपने साथ रखना पड़ता है, जो मैं अब गाड़ी में ही अपने साथ रखता हूं। मुझे सुविधा रहती है और जरूरत पड़ने पर सामान की तुरंत पूर्ति भी हो जाती है।”
“यह भी सही है। कई लोग तो केवल दिखावे के लिए ही यह सब करते रहते हैं, तुम तो फिर भी…।” आशुतोष प्रभावित होता हुआ बोला।
“एक बात और, आते-जाते मुझे जो भी मिलता है मैं उसे लिफ्ट भी दे देता हूं। कई बार तो कुछ बहुत ही ज्यादा जरूरतमंद लोग मिल जाते हैं, जैसे किसी ने जल्दी से ट्रेन या बस पकड़नी है, कोई बीमार है, या किसी को कहीं बहुत जरूरी काम है, वगैरह-वगैरह; तो वह भी एक अच्छा काम साथ-साथ हो जाता है। इसमें मेरा जाता भी क्या है? मैंने तो आना-जाना होता ही है। कई लोग तो अब मजाक में मुझे ‘लिफ्टमैन’ के तौर पर भी जानने लगे हैं।”
“यानी ‘एक पंथ कई काज’।” आशुतोष अब संतुष्ट था।
© श्री विजय कुमार
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