श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ कथा-कहानी ☆ कोहरा – भाग -1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

(यह कहानी ‘साहित्य अकादमी’ द्वारा ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में पूर्व प्रकाशित  हुई थी।)

विजयेंद्र सुबह की सैर से लौटे, तब साढ़े सात बज चुके थे। आज लौटने में देर हो गई थी। सुबह, जब वे घूमने निकले थे, तब घना कोहरा था। देह पर लिपटे वस्त्रों-सा लिपटकर शरीर से एक रूप हो रहा था। उन्हें लगा, शरीर के छिद्रों से कोहरा अंदर रिस रहा है। वे उनकी हमेशा की राह से ही जा रहे थे। हमेशा की तरह टीले पर चढ़कर लौटनेवाले थे। लेकिन आज उन्हें महसूस हो रहा था, मानो किसी अज्ञात मार्गसे किसी रहस्य की ओर जा रहे हैं। पीछे छूट गए परिचित निशान कोहरे की वजह से मिट गए थे। क़रीब के निशान धुँधले हो रहे थे। अनजाने-से लग रहे थे। पहाड़ी चढ़ते हुए उन्हें लगा, कोहरा आक्रामक होकर उन पर हावी हो रहा है।

विजयेंद्र को बचपन याद आया, जब वे रतनगढ़ रियासत में थे! कोहरे में घोड़ा दौड़ाते हुए तेज़ रफ़्तार से जाना उन्हें पसंद था। जब वे थके-हारे लौटते, तब मार्ग में मोहना के सुर सुनाई देते, बड़ी दूर से आते प्रतीत होते। ऐसा लगता, मानो सुरों का आवरण बुना जा रहा है। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते जा रहे हैं, आवरण का एक-एक रेशमी रेशा खुलता जा रहा है!

कोहरा झीना होता जा रहा है। वह पारदर्शी पटल मानो सूरज की कोमल किरणों से उजास ले रहा है। नज़ाकत से झीने होते कोहरे से पेड़ों की फुनगियाँ, घरों की छत, दूर की पहाड़ी ऐसे खिलते जा रहे हैं, जैसे पौधे पर कली खिलती है। सूरज में यदि चाँद की शीतलता का अनुभव करना हो तो ऐसे घने कोहरे में सूरज को देखना चाहिए।

अपने दिल की चौखट में अंकित प्रकृति का यह रूप काग़ज़ पर साकार करना चाहिए। दिल में बहुत कुछ छलक रहा है। हाथ सुरसुरा रहे हैं। ब्रश हाथ में लेकर मन में उभरकर आई तसवीर चित्रित करने के लिए बेताब हुए।

विजयेंद्र जल्दी लौटे थे, फिर भी देर हो ही हुई थी। साढ़े-सात बज चुके थे। अब समाचार-पत्र पढ़ना, फिर स्नान, नाश्ता करके एक बार ऊपर की मंज़िल पर अपने स्टुडियो में गए कि उन्हें आवाज़ देने की हिम्मत किसी में नहीं होती थी। वे अपने साम्राज्य में गए कि उनकी मर्ज़ी से ही लौटेंगे। खाने-पीने के लिए भी बुलाना उन्हें पसंद नहीं था।

विजयेंद्र ने समाचार-पत्र पर नज़र डाली, लेकिन उन्हें न समाचार दिखाई दे रहे थे, न शब्द! सुबह का नज़ारा ही बार-बार नज़रों के सामने आ रहा था। मानो पूरा अख़बार कोहरे से ढक गया था। पीछे की ओर सुनहरी झलक, पेड़-पौधे कोहरे में छिपे हुए थे। यह सब चित्रित करने की उन्हें जल्दी थी।

विजयेंद्र अपने स्टुडियो में आए। उन्होंने स्टेंड पर फलक लगाया और वे रंग घोलने लगे। आज उन्हें चित्रित करना हैं छोटे-बड़े पेड़, नज़दीक से, दूर से, घर की छत, दूर की पहाड़ी के शिखर, जिनका अस्तित्व महसूस हो रहा है लेकिन रंग रूप का सुडौल एहसास कहीं खो गया है। इन सबके अस्तित्व को घेरकर बैठा हुआ कोहरा… घना कोहरा! विनाशी… फिर भी इस पल वही एक चिरंतन सत्य है, इस बात का एहसास दिलानेवाला कोहरा… उस कोहरे से दूर से भरकर आनेवाली हलकी पीली किरण… वैसी ही, जैसे मोहना के सुर दूर से आनेवाले कोहरे की तरह लिपटनेवाले… वो सामने नहीं आते, फिर भी उस पल चिरंतन सत्य प्रतीत होनेवाले सुर!

कोहरा देखकर विजयेंद्र की रतनगढ़ की यादें जाग उठीं! वे जब भी कोहरा देखते हैं, उन्हें रतनगढ़ याद आता है। रतनगढ़ जंगल से घिरा था। वहाँ कोहरा घना होता था। कोहरे से गुज़रते हुए पीछे मुड़कर देखते। कोहरे का परदा फिर से जुड़ जाता। घुड़सवारी करके लौटते समय मोहना के सुर सुनाई देते। दूर तक चले आते। हवेली तक साथ देते। वैसे तो उसके सुर आज भी, यहाँ भी, आसपास मौजूद हैं। अपनी ही नहीं, औरों की ज़िंदगी में भी इन सुरों ने ख़ुशियाँ भर दी है। आज यह दुनिया की मशहूर गायिका बन गई है। उसके हज़ारो, नहीं लाखों रिकॉर्ड्स बने हैं। अपने संग्रह में भी उसके कई रिकॉर्ड्स हैं। लेकिन अपने दिल में उसकी वह बचपन की आवाज़ ही बसी है। और उसकी वह मासूम ख़ूबसूरती!

काग़ज़ पर चित्र उभर रहा था। दूर की पहाड़ी, घर, पेड़ मानो हाथ में आ गए थे! इन सबको घेरकर बैठा हुआ कोहरा, बूँद-बूँद से काग़ज़ पर उतर रहा था।

स्टुडियो की कॉलबेल बज उठी। विजयेंद्र नाराज़ हुए। चित्र पूरा करके ही, वे नीचे जाना चाहते थे। लेकिन मिलने आनेवाले आदमी का काम भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होगा, वरना विद्यागौरी बेल ना बजाती। उन्होंने ब्रश धोकर रखे और नीचे आ गए।

विजयेंद्र की आते देख, हॉल में बैठे हुए लोग उठकर खड़े हो गए। ‘‘बैठिए बैठिए! हमारे आते ही आप बुज़ुर्ग खड़े हो जाएँ ऐसे अब हम कौन रह गए हैं भई!” विजयेंद्र ने कहा। चित्रकारिता में गतिरोध आने से विजयेंद्र नाराज़ हुए थे, लेकिन जो लोग मिलने आए थे, उन्हें देककर उनकी नाराजगी दूर हो गई। आज सुबह सैर करते हुए उन्हें रतनगढ़ की याद आई थी, और अब रतनगढ़ के लोग सामने खड़े हैं। 

‘‘हाँ, कहिए, कैसे आना हुआ? कोई खास बात?” विजयेंद्र ने पूछा।

‘‘इस वर्ष, बड़े महाराज महेंद्रनाथ जी की पुण्यतिथि के मौक़े पर मोहना देवी के गाने के कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है।”

‘‘यह अच्छी बात है। बड़े महाराज उनकी सराहना करते थे।”

‘‘कार्यक्रम भारत सांस्कृतिक संचनालय की ओर से किया जाएगा। उनसे बात हो चुकी है।” देसाई जी ने कहा।

‘‘इसी बहाने मोहना देवी का सम्मान करने का इरादा है। भारत सरकार ने उन्हें ‘स्वर शारदा’ उपाधि प्रदान की है। कल ही घोषणा हुई है।”

‘‘हाँ!”

कल टी.वी. पर समाचार सुनने के बाद, मोहना को बधाई देने के लिए विजयेंद्र ने पाँच-छह बार फ़ोन किया था, लेकिन फ़ोन व्यस्त लग रहा था। वो तो लगना ही था। हर कोई फ़ोन पर बधाई देने का प्रयास जो कर रहा होगा! आज किसी को पोस्ट ऑफ़िस भेजकर बधाई का तार भिजवा देंगे। विजयेंद्र मन-ही-मन सोच रहे थे, लेकिन अगर फ़ोन पर बात होती है, तो उसकी सुरीली आवाज़ सुनाई देगी! अब तक तो उसने फ़ोन पर स्वयं बात की है। सचिव से संदेश देना-लेना नहीं किया है। देखते हैं, आज रात फ़िर से फ़ोन करेंगे!

‘‘आप उस समय रतनगढ़ में होंगे ना?” जेधेजी ने पूछा।

‘‘हाँ, बिल्कुल रहूँगा।”

इतना कहने-सुनने के बावजूद बात आगे नहीं बढ़ रही थी। विजयेंद्र समझ गए, ये लोग और कुछ कहना चाहते हैं। जो कहने के लिए आए हैं, अब तक वह कह नहीं पाए हैं। समझ में नहीं आ रहा था किन शब्दों में कहा जाए। मानो कोहरे में छिपा रास्ता ढूँढ़ रहे हों। मंज़िल का पता है, लेकिन जाएँ कैसे? उनकी चुलबुलाहट देखकर विजयेंद्र ने पूछा, ‘‘इस कार्यक्रम के संबंध में आपको क्या मुझसे कोई अपेक्षा है? आप खुलकर बताइए।”

‘‘हम रजतमहल के सारे ट्रस्टी चाहते हैं कि रजतमहल के कला कक्ष में मोहना देवी का पोर्ट्रेट लगाया जाए!” देसाई जी ने कहा।

‘‘दुनिया की सबसे मशहूर गायिका अपने रतनगढ़ की है, यह हमारे लिए गर्व की बात है।”

‘‘सही कहा आपने। उनके संगीत ने हम सबकी ज़िंदगी में खुशियाँ भर दी हैं। आपकी पोर्टेट की कल्पना बहुत अच्छी है।” विजयेंद्र ने कहा।

‘‘लेकिन मोहना देवी ने मना कर दिया है। अगर आप उन्हें मना लें तो… वो आपको न नहीं कहेंगी।”

‘‘में कोशिश करूँगा।”

रजतमहल में महेंद्रनाथ जी ने चुनिंदा चित्र-शिल्प कृतियों का बहुत ख़ूबसूरत संग्रह जमा किया था। महेंद्रनाथ जी रतनग़ढ रियासत के आख़िरी राज थे। उनकी ढलती उम्र में रियासत विलीन हो गई थी। वे बड़े रसिक और दिलदार थे। कलाकारों के क़द्रदान थे। उन्होंने कई कलाकारों को आश्रय दिया था। चित्रकला में उन्हें ख़ास रुचि थी। फ़ुरसत के समय में वे चित्र बनाते थे। कई जाने-माने, देशी-विदेशी चित्रकारों की चित्र-कृतियाँ उन्होंने ख़रीदी थीं। जब वे राजा थे, तब ब्रिटिश गवर्नर से और अन्य लोगों से भी कुछ चित्र उन्हें भेंटस्वरूप मिले थे। उन्होंने जाने-माने चित्रकारों से अपने दादा, परदादा, माँ, दादी, चाची आदि के पोर्ट्रेट बनवा लिए थे। एक इतालवी चित्रकार ने विजयेंद्र का भी चित्र बनाया था। उड़नेवाली तितली, उसे पकड़ने के लिए लपकते दो नन्हे हाथ! आँखों में उत्सुकता! विजयेंद्र को वह चित्र बहुत पसंद था। इसलिए नहीं की वह उनका था, बल्कि इसलिए कि वह एक सुंदर कलाकृति थी। रजतमहल के चित्र देखते-देखते और महेंद्रनाथ जी ने जिन कलाकारों को आश्रय दिया था, उनकी कलाकृतियों का कैसे निर्माण होता है, यह देखते-देखते वे बड़े हुए थे। स्वतंत्रता के बाद रतनगढ़ रियासत भारतीय प्रजातंत्र में विलीन हुई थी। रजतमहल, उसमें रखी चित्र-शिल्प कृतियाँ सैलानियों के आनंद का और चित्रकारों के अभ्यास का केंद्र बन गया था।

रजतमहल महेंद्रनाथ जी के पिताजी विश्वनाथ जी ने अपनी पत्नी माधवी देवी को उनके पच्चीसवें जन्मदिन पर बतौर तोहफ़ा देने के लिए बनवाया था। रतनगढ़ रियासत के दक्षिण में नील सरोवर नाम का विशाल सरोवर है। इस सरोवर का आकार कमल के पत्ते की तरह है। सरोवर का पानी साफ़ और मीठा है। सरोवर के किनारे रजतमहल ऐसा खड़ा है, मानो कमल के पत्तों के बीच खिला श्वेत कमल हो! महल संगमरमर का बना है। उसमें चाँदी जड़े खंबे हैं! उस पर नक़्क़ाशी की गई है।

सामने भव्य कक्ष है। उसके चारों तरफ़ छोटे-छोटे आठ कक्ष हैं। महल के दक्षिण की ओर नील सरोवर है, बाक़ी तीनों तरफ़ बग़ीचा है।

पहले रजतमहल में चुनिंदा कलाकारों के नृत्य संगीत के कार्यक्रम हुआ करते थे। राज परिवार के लोगों के साथ दरबार और रियासत के गिने-चुने प्रतिष्ठित लोगों को भी आमंत्रित किया जाता था। बसंत पंचमी, शरद पूर्णिमा को यहाँ बड़ा उत्सव मनाया जाता था। इस उत्सव में प्रजा भी शामिल हो सकती थी।

रियासत विलीन होने के बाद, रियासत के आश्रय में रहनेवाले लोग, अपना आबोदाना ढूँढ़ने के लिए चारों दिशाओं में चल पड़े। बग़ीचे वीरान हुए। फूल पौधों की जगह कँटीले पेड़-पौधों से बग़ीचा भर गया।

रजतमहल महेंद्रनाथ जी की पसंदीदा जगह थी। अपने अंतिम समय में वे वहीं पर थे। अपना चित्र-संग्रह उन्होंने वहीं पर मँगवाया था। उनकी मृत्यु के बाद महल और चित्र-संग्रह सरकार के क़ब्ज़े में चले गए। आज वह पर्यटन स्थल हो गया है। प्रकृति का ख़ूबसूरत नज़ारा, कला का उत्कृष्ट नमूना? रजतमहल और उसमें रखे गए सुंदर चित्र देखकर सैलानियों की आँखे जुड़ा जाती हैं। मन प्रसन्न हो जाता है। धन्य-धन्य कहते हुए लोग बाहर आते हैं।

रजतमहल के चित्र-संग्रह में और एक चित्र रखने का व्यवस्थापक मंडल ने निर्णय लिया था। मोहना देवी का चित्र। बाक़ी लोगों की सहमति थी। विजयेंद्र विश्वस्त मंडल के सदस्य थे। अगर रियासत विलीन न होती तो आज वे रजतमहल के मालिक होते, इसलिए उनके साथ चर्चा करके उनकी अनुमति लेना आवश्यक था। देसाई जी ने बात शुरू की थी।

रजतमहल में उनका चित्र लगाना उनका बड़ा सम्मान होगा। मोहना देवी आज दुनिया की मशहूर गायिका हैं। रतनगढ़ उनकी साधना भूमि है। रियासत विलीन होने के बाद अन्य कलाकारों की तरह नयनतारा भी अपनी बेटी को लेकर शहर चली गई थी। वहाँ उसने गाने के कार्यक्रम किए थे। बेटी की पढ़ाई का इंतज़ाम किया था। नयनतारा जब अपनी बेटी को लेकर रतनगढ़ आई थी, तब मोहना केवल डेढ़ साल की थी। महेंद्रनाथ जी ने उसे आश्रय दिया था। उसे घर दिया, अन्न-वस्त्र दिए, उसका मारा-मारा फिरना समाप्त हो गया था। महाराज की इच्छानुसार उसे उन्हें गाना सुनाना था। दशहरा, दीपावली, वर्षप्रतिपदा, बसंत पंचमी, जन्माष्टमी, शरद पूर्णिमा आदि ख़ास मौकों पर गिने-चुने आमंत्रित लोगों के सामने उसका गाना होता था। रतनगढ़ में आश्रय मिलने के बाद उसे अपनी बेटी मोहना की संगित शिक्षा की ओर ध्यान देने के लिए भी फ़ुरसत मिली थी। मोहना आज मशहूर गायिका है। उसे मिलनेवाले पैसा, प्रतिष्ठा, सराहना सब कुछ नयनतारा ने अपनी आँखों से देखा था। आज वह इस दुनिया में नहीं रही। दोनो – माँ – बेटी अपने अन्नदाता के प्रति कृतज्ञ थीं। अपनी साधना भूमि रतनगढ़ के लिए उनके मन में आत्मीयता थी। विजयेंद्र महेंद्रनाथ जी के पोते होने से उनके प्रति मोहना के मन में अपनापन था। कभी-कभी कार्यक्रम में वह प्रकट भी होता था। उसके पीछे क्या केवल कृतज्ञता है या और भी कुछ…? जब जब मोहना की याद आती है तो लगता है, मानो दूर से हवा के झोंके के साथ कोई ख़ुशबू आई और दिल पर छा गई। विजयेंद्र कभी-कभी सोचते, मोहना के दिल में उनके लिए कौन सी भावनाएँ होंगी भला!

मोहना देवी आज कला, प्रतिष्ठा, पैसा और लोकप्रियता के जिस शिखर पर है, उसकी तुलना में विजयेंद्र उस शिखर के तीसरे-चौथे पायदान पर भीं नहीं होंगे। लेकिन व्यवस्थापक मंडली का मानना है कि पुराने ऋणानुबंध के कारण एक-दूसरे के लिए जो आत्मीयता, सम्मान उनके दिल में है, यदि विजयेंद्र बात करेंगे तो मोहना देवी पोर्ट्रेट बनवाने के लिए मना नहीं करेंगी।

क्रमशः…

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

मो. 9403310170,   e-id – [email protected]  

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments