श्री घनश्याम अग्रवाल
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “अदरक के पंजे”)
☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “अदरक के पंजे” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
सड़क के किनारे बनी उस छोटी -सी गन्ने के रस की दुकान पर मैं प्रायः चला जाता हूँ। परिचित दुकानदार होने के नाते कुछ देर रुकता हूँ। ग्राहकों की ओर देखता हूँ। ग्राहक रस पीने की एक पूरी प्रक्रिया से गुजरते हैं। रसवाला जब ताजा गन्ना मशीन में डालता है तो ग्राहक का ध्यान मशीन के पास लगा होता है। पहली बार में मशीन से रस का एक फव्वारा -सा फूटता है। ( कुदरत ने कहाँ-कहाँ मीठे झरने छुपा रखे हैं। ) ढेर सारा गाढ़ा रस जब मशीन से बर्तन में गिरता है तो बिना पीए ही एक मिठास -सी महसूस होती है। पर यह मिठास गन्ने को दुबारा मशीन में डालने तक ही रहती है। जब गन्ने को तिबारा मशीन में डाला जाता है, तो मशीन से निकलने वाले रस में हल्की -सी कड़वाहट लगती है। रस पीने का मूड कुछ कम हो जाता है। और जब उसी गन्ने को चौथी बार मरोड़ते हुए मशीन से निकाला जाता है, तो ग्राहक हल्का -सा अपमानित-सा महसूस करता है। जैसे बड़े बाबू को किसी ने चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी समझकर सलाम कर दिया हो। कुछ लोग तो चौथी बार देखने के बजाय इधर-उधर मुंँह फेर लेते हैं। गन्ने में अब क्या रस निकलेगा! हाँ, छिलके का रस जरुर निकलता है। पीने का रस विरस होने लगता है।
एक बार मैंने रसवाले को सारी प्रक्रिया बताते हुए कहा -” चौथी बार गन्ने को मशीन से मत निकाला करो। ग्राहक का ध्यान मशीन पर होता है, वह अपमानित -सा महसूस करता है। इससे उसे पुनः रस पीने की इच्छा नहीं होती। “
रसवाले ने कहा -” तुम ठीक कहते हो, पर चौथी बार से ही तो हमारा पेट भरता है। ” उसने समझाते हुए बताया -” पहली बार में तो गन्ने की लागत निकलती है, दूसरे में दुकान का मेण्टेनस, तीसरे में पावर, बर्फ, पुलिस, कमेटीवाले निपटते हैं। हमें जो कुछ बचता है, वह चौथी बार में ही बचता है।”
” मगर इससे ग्राहक संतुष्ट नहीं होता। ” मेरे इस कथन पर उसने मुझसे कहा -‘ शुरू में नहीं होता मगर बाद में होता है। तुमने चौथी प्रक्रिया ध्यान से नहीं देखी, चौथी बार गन्ने को मरोड़कर जब हम मशीन में से निकालते हैं, तब हम गन्ने के साथ एक अदरक का टुकड़ा भी डालते हैं। इससे ग्राहक के ईगो को एक संतुष्टि मिलती है। अदरक अपने चरपरे स्वाद से छिलके के रस को गन्ने के रस में इस तरह मिलाती है कि छिलके का रस गन्ने का रस बन जाता है और गन्ने का रस और जायकेदार बन जाता है। गन्ने का रस तो आप लोग पी लेते हो, हमें तो छिलकों पर ही गुजारा करना होता है। ” एक पल रुककर वह कुछ उदास स्वर में फिर बोला –
” आजकल धन्धे में काम्पिटेशन बहुत हो गई है। जिसे काम नहीं मिलता, वह रसवंती की दुकान खोल लेता है। सीजन में तो इतनी दुकानें लगती है कि देश में जितने गन्ने नहीं होते उससे ज्यादा दुकानें गन्ने के रस की होती है। ऐसे में इस भीड़ में, छिलकों के सहारे ही टिके होते हैं। हमें इसी अदरक का सहारा होता है। गमों को जिस प्रकार हलके-फुलके चरपरे लमहें कम कर देते हैं, ये चरपरी अदरक , जीने की हिम्मत देती है। हमारे लिए यही लक्ष्मी है, देवता है, जो इस बेकारी और महँगाई में भी पूरे परिवार को थामती है, सँभाले रखती है। “
” शायद इसीलिए कुदरत ने अदरक को पंजे दिए हैं……। “
और उसकी आँखों से खारा-सा, चरपरा-सा दो बूंद रस टपक पड़ा।
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© श्री घनश्याम अग्रवाल
(हास्य-व्यंग्य कवि)
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