सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ उसका घना साया… भाग-१ – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

ड्राइंग हॉल से भैया जी के बोलने की आवाज आयी… परसों दशहरा….!जरूर भोजन का न्योता देने आए होंगे। भैया जीऔर प्रभाकर की अच्छी खासी दोस्ती हो गई है। प्रभाकर है मितभाषी, बहुत जरूरत पड़ने पर भी औरों से बात की तो की, नहीं तो नहीं! यह उनका अपना अंदाज है। …और एक ये भैया जी, जिनका कौशल है कि वे किसी भी विषय पर किसी के भी साथ बातचीत कर सकते हैं। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है। बहुत अलग-अलग विषयों पर उनकी अच्छी खासी पकड़ भी है। इस वजह से छोटे बच्चों से लेकर बडों तक सबको इस पचहत्तर साल के बुढे के साथ बातचीत करना अच्छा लगता है। …..सिर्फ उनकी वजह से और सिर्फ उनके साथ ही…. प्रभाकर बोलते हैं। वरना यह इन्सान पेड़ – पौधों उनकी कोशिकाओं, जीन्स और क्रोमोजोम में ही ज्यादा रमता है। उनके सगे -संबंधी, परिचित, रिश्तेदार सब के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना यह मेरी जिम्मेवारी है।

“और बताओ भाई, क्या हाल-चाल? सब कुशल मंगल? … इतनी सी बात करके वे अपने बाग में…. मतलब उनकी प्रयोगशाला में गायब हो जाते हैं। बोटैनिकल रिसर्च सेंटर में वे चीफ साइंटिस्ट के ओहदे पर काम करते हैं। पेड़, पौधों पर घास- फूस पर प्रयोग, व संशोधन करना और खाली वक्त अपने विषय की किताबें पढ़ना, लिखना, सेमिनार-कॉन्फ्रेंस के लिए नोट्स, लेख, प्रेजेंटेशन तैयार करना यही उनका छंद है। ….एक तो उन जैसे, अपने में ही खोए हुए शख्स को शादी ही नहीं करनी चाहिए थी। हो सकता है उनके विचार भी वैसे ही रहे होंगे। पर अनजाने में ही कभी किसी ने उनको शादी के लिए राजी करवाया होगा। पर ऐसा अपने कोश में बंद रहने वाला इंसान, भैया जी के सामने थोड़ी देर के लिए अपने आवरण से बाहर आता है। बाकी दुनिया से उनका कुछ भी लेना देना नहीं। ….लेकिन आजकल हमारी साडेतीन साल की बेटी गौरी उन्हें उस आवरण से बाहर खींच लाती है। “पापा चिदीया का गाना सुनाऊं? उसका घोंसला कहां है? पापा, अच्चू को लुपया मिला, बच्चू को लुपया मिला… इसके आगे क्या? … चलो हम अक्कद बक्कद खेलते हैं। “.. कभी यह कभी वह …कहानियाॅं, गाने… उसकी तोतली बोली में की हुई बातें खत्म ही नहीं होती हैं। उसके साथ बोलते, बतियाते समय संशोधक महाशय के गंभीर चेहरे पर हल्की सी मुस्कान दिखाई देती है। दिन-ब-दिन ऐसे स्वर्णिम पल ज्यादा… अधिक ज्यादा… मिलेंगे यह पगली आस मुझे खुश कर देती है। लगता है तितली की तरह अपना आवरण भेद के ये इंसान भी हमेशा के लिए बाहर आएगा… और यह काम सिर्फ और सिर्फ गौरी ही कर सकती है।

“मम्मी, भैया जी आ गये, भैया जी आ गये “तालियाॅं बजाती हुई गौरी मुझे सूचना देने रसोई में आयी और उसके पीछे भैया जी भी! एक चॉकलेट का बड़ा सा पैक खोलकर उन्होंने एक चॉकलेट गौरी के मुंह में ठूंस दी और पैक उसके हाथ में दे दिया। भैया जी हर बार कुछ ना कुछ लाना जरूरी है क्या? आप के लाड प्यार से यह लड़की एक दिन आपके सिर पर बैठ जाएगी। “…”बैठने दो, मैं वहां से उसको गिरने नहीं दूंगा। अभी भी इतनी ताकत है इन बूढ़ी हड्डियों में!”… और एक दिलखुलास हंसी!

मैं उनके विदेश में रहने वाले बेटा – बेटी व उनके परिवार, सब की खुशहाली पूछने लगी। वे भी बड़े खुशी से अपने पोते, पोतियों से वीडियो कॉल पर की हुई बातों के बारे में, फिर वहां की सामाजिक स्थिति के बारे में, अभी – अभी पढ़ी हुई किताबों के बारे में दिल खोल कर बातें करने लगे। गौरी को छोटी सी दो-चार कहानियाॅं भी उन्होंने सुनाई। उसके किचन में‌‌ बनी… छोटे से कप में सर्व की हुई…. झूटीमूटी की चाय पी ली, उसके गुड़िया की टूटी हुई माला भी पिरो दी। सच पूछो तो भैया जी के आने से घर में बड़ी रौनक आती है। सारा घर खुशी से झूम उठता है। यह बात मुझे अच्छी लगनी चाहिए…. और लगती भी है। लेकिन अंदर से मेरा मन बेचैन हो उठता है। यह बेचैनी मैं किसी से साझा नहीं कर सकती। किसीको बता नहीं सकती। सब कुछ अकेले ही बर्दाश्त करती रहती हूॅं।

भैया जी के आते ही मेरे मन में ‘वह’बहुत ही स्पष्ट रूप से रेखांकित होता है। इन तीन-चार सालों में उसकी छवि धुंधली सी जरूर हुई है। …. समय के साथ मेरे मन पटल से वह गायब भी हो जाएगी। लेकिन भैया जी के आते ही सब कुछ गड़बड़ा जाता है। जैसे कागज से कार्बन पेपर हटाते ही नीचे कागज पर बनी हुई आकृति ज्यादा साफ, गाढ़े रंग में चमकती है ना, वैसे ही वह मेरे मन पर समूर्त, साकार हो जाता है।

मेरे मन में रचा बसा ‘वह’… जयंत…! प्रभाकरजी से शादी करके मैं उनके घर पहुॅंची तो ‘वह’ भी मेरे साथ वहाॅं पहुंच गया। प्रभाकर जी के साथ शुरू की हुई शांत, नीरस गृहस्थी में वह एक साए की तरह मेरा साथ देता रहा। मेरे साथ हॅंसता-बोलता रहा। आजकल जब भी भैया जी आते हैं लगता है कि उसके घने साये ने रंग रूप धारण कर लिया है और मानो वह मूर्तिमान साया मालिक बनकर मुझ पर अधिकार जमा रहा है, इसलिए कभी-कभी लगता है अगर भैया जी से रिश्ता ही टूट जाए तो क्या मेरे मन में बसा हुआ वह घना साया धीरे-धीरे फीका पड़ जाएगा? उसकी उंगली पकड़कर भैया जी मेरी जिंदगी में आए थे। उसकी उंगली तो छूट गई। ….. लेकिन भैया जी आते ही रहे।

अब इस रिश्ते को खत्म करना मेरे हाथ में रहा भी नहीं है।

भैया जी- ‘उसके’- जयंत के पिता जी के दोस्त!जयंत कॉलेज में पढ़ रहा था। माॅं पहले ही गुजर गई थी। उसका बड़ा भाईऔर बहन दूसरे शहर में रहते थे। अचानक उसके पिता की हार्ट फेल होने से मौत हो गई। पिता के निधन से उत्पन्न हुए शून्य को भैया जी के प्यार ने भर दिया था। मुझे शादी के लिए ‘हॉं’ करने से पहले जयंत मुझे भैया जी के पास ले गया था। उन्होंने पुष्टि की, कि उसका चुनाव बहुत अच्छा है…आगे बढ़ो..।

तभी से मुझे भैया जी के मधुर अच्छे स्वभाव का परिचय हुआ। हमारी अरेंज्ड शादी तुरंत नहीं हो पायी। जयंत के पत्रकार नगर वाले फ्लैट का कब्जा मिलने तक छह महीने इंतजार करना तय हुआ। फिर तब तक.. हम लोगों का घूमना- फिरना, फोन पर घंटों बातें करना, नाटक मूवीज देखने जाना सब शुरू हो गया। हर पल खुशी व आनंद देने वाला था। जिंदगी इतनी सुंदर, सुखमय, आनंददाई होती है? मुझे यकीन हो गया था कि इसीको ही स्वर्गसुख कहते हैं।

 फ्लैट हाथ में आ गया। फिर दोनों ने मिलकर शॉपिंग की। अपने घर को बहुत अच्छी तरह से मैंने सजाया। किसी चीज की भी कमी रहने नहीं दी थी मैंने। …. पर दहलीज पार करके गृह प्रवेश करना मेरे नसीब में ही नहीं था……

 . हम विवाह बंधन में बंध गए। मेरे मम्मी पापा, भाई-बहन सारे पिहर वाले बहुत खुश थे। जयंत एक प्रख्यात पत्रकार था। उसका जोड़ा हुआ लोक संग्रह बहुत बड़ा था। उसमें स्नेही-सोबती, यार -दोस्त, सहकारी, व्यवसायिक साथी, मंत्रालय से संबंधित लोग सारे ही शादी में उपस्थित थे। ….और तो और… मुख्यमंत्री जी का भी मैसेज आया था। यह सब कुछ मेरे लिए तो बहुत अचंभित करनेवाला था। मेरे मम्मी, पापा को तो यकीन ही नहीं हो रहा था कि दहेज न लेने वाला, रिसेप्शन का खर्चा खुद उठाने वाला, किसी के भी द्वारा दिया हुआ उपहार प्यार से बोल कर अस्वीकार करने वाला यह युवक अपना दामाद है।

 ” जयंत यार! तुरंत हनीमून पर? कहाॅं? दोस्त मजाक में पूछ रहे थे। “नहीं भाई, अभी तो 176 बटे 20′ स्नेह शील’ अपार्टमेंट ही। ” बाद का सोचा नहीं है “वह मुस्कुराते हुए जवाब दे रहा था। जेठानी जी और ननंद जी घर में लक्ष्मी पूजा की तैयारी करने के लिए हाॅल से पहले ही निकल चुकी थीं। एक सजायी हुई कार हमारा इंतजार कर रही थी। हम कार तक पहुंच ही थे। ….अचानक जयंत नीचे बैठ गया, उसके चेहरे का नूर ही बदल गया। और उसने खून की उल्टी की‌। …..

 बारात घर जाने के बजाय मुंबई हॉस्पिटल में! शादी का जोड़ा पहनी हुई जेवर से सजी हुई नयी नवेली दुल्हन….मैं….हॉस्पिटल के इमरजेंसी वार्ड के बाहर… बहुत सारे दोस्त, साथी, रिश्तेदार मदद करने पहुंचे थे। दवाइयाॅं, खून, इंजेक्शन्स, एक्स-रे, स्कैन, शब्द मैं सुन रही थी सुन्न मनऔर दिमाग से। ….बीच में पता नहीं कब किसी के साथ जाकर कपड़े बदल आयी थी।

 क्रमशः… 

मूल मराठी कथा (त्याची गडद सावली) –लेखिका: सौ. उज्ज्वला केळकर

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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