श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– नामालूम किस्सा… –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — नामालूम किस्सा…  — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

एक आदिम कथा है। पिछले जन्म में एक आदमी की तीन इच्छाएँ अपूर्ण रह गई थीं। पहली इच्छा थी ज़मीन खरीदने की, दूसरी इच्छा थी मकान बनाने की और तीसरी इच्छा थी अपने निर्मित मकान में रहने की। इसके लिए वह अथक परिश्रम करता था। उसे डर लगता था कहीं किसी कारण से बाधित होने लगे और ऐसे में हो कि जो इच्छाएँ अपनी आँखों में चमकती हैं और अपने हृदय में नवजात हिरण की तरह कुलाँचे मारती हैं वे इच्छाएँ कुम्हलाने लगें। तब तो उसकी इच्छाएँ उसके लिए उपास्य हो जाती थीं। खाए तो वह कटौती कर के, ताकि अपनी इच्छाओं की आपूर्ति के लिए कुछ रूपयों की बढ़ोत्तरी हो सके। बोले तो वह शब्दों को घटा कर। झोंपड़ी जैसे मकान में ज्यादा बोलना शोभा भी तो न देता। बोलने के लिए अपनी विशेष संपदा हो। अपनी ज़मीन और अपने मकान से बड़ी संपदा और क्या हो सकती है। अपने आलीशान मकान में रहें और कोई आए तो अपनी अद्भुत शान प्रतिबिंबित हो। ज़ोर से बोलने और खास कर अधिक बोलने में तब कोई तुक हो। सुनने वाले को मानना पड़े कमाया है तभी तो ऐसे बातूनीपन की फसल काट रहा है।

पर विधाता के बनाए हुए जन्म – मृत्यु के बंधन से वह मुक्त तो था नहीं। जन्म से आया था तो मृत्यु से जाने का संदेशा आया। वह मृत्यु से कंधों पर गया तो जैसे अपनी तीन अधूरी इच्छाओं को गिनते हुए। चिता में शरीर का दाह हुआ तो तीनों इच्छाएँ आग की लपटें बन कर आकाश की यात्रा पूरी कर रही हों। यह वही आकाश था जहाँ उसका अगला जन्म निर्धारित था। उसने अगले जन्म में जोर लगाया कि अपनी तीन इच्छाओं का लोक ऐसा हो कि ज़मीन मकान होने में यह भी हो कि अपने मकान में रहने का सुख अर्जित हो जाए। पर इस जन्म में वह मात्र ज़मीन खरीद पाया और उसके जीवन के दिन पूरे हो जाने से उसे जाना पड़ा। एक इच्छा पूरी हो जाने का उसे संतोष था, लेकिन दो इच्छाएँ अधूरी रह जाने का मनस्ताप उसे गहरी आत्मा तक कुरेद कर रख देता था। इसी मनस्ताप ने उसे नए जन्म में ढाला। जन्म था तो इच्छाओं के लिए ही तो था। बेहद स्फूर्ति और लगन से उसने दूसरी इच्छा के अनुरूप पहले से खरीदी हुई अपनी ज़मीन पर अपना मकान बनाना शुरु किया। मकान तो बना, लेकिन मृत्यु ने अपने मकान में रहने से उसे वंचित कर दिया। सच यह था आवागमन का अब वह इतना शौकीन हो गया था कि अगले जन्म का मानो वह स्वयं नियंता हो और भगवान तो बस एक द्रष्टा हो। अगले जन्म में अपने मकान में रहने की उसकी तीसरी इच्छा पूरी तो हुई, लेकिन अब तो इच्छाओं का दास हो जाने से उसने चौथी इच्छा का आविष्कार कर लिया था। उसे धुन थी अपने मकान में अपने बच्चों की शादी देखने की। वह मानता था बहुत ही जोश – खरोश से वह अपनी इच्छाओं का दासत्व निभाता है। पर भगवान जानता था वह कितना थकता टूटता और चिंदा – चिंदा बिखरता है। भगवान ने उससे कहा बच्चों की शादी देखने की इच्छा तुम्हारा एक बहुत बड़ा भ्रम है। उन्होंने तो शादी कर ली है और उनके बड़े – बड़े बेटे – बेटियाँ हैं। बल्कि वे अपने बच्चों की शादी करने की चिंता करते हैं। यह उसके लिए बड़े ही अचरज और धक्के की बात हुई। अपने बच्चों के अपने प्रति इस तरह दुराव कर लेने से उसने जैसे तैसे अपनी इच्छाओं से अपने को मुक्त किया। उसे नए जन्म से अब बहुत विरक्ति हो गई थी। उसकी विरक्ति देखते हुए भगवान सोच में पड़ गया। मृत्यु का जिस तरह सिलसिला था जन्मों का भी तो वही उपक्रम था। इस दृष्टि से उसका पुन: जन्म तो हुआ, लेकिन एक रद्दोबदल के साथ। बल्कि भगवान ने तो सब के लिए एक ही जैसा नियम बना लिया। जन्मों से सदाबहार वसंत की तरह धरती लदती रहे, लेकिन किसी को अपने पूर्व जन्म का हल्का सा भी किस्सा मालूम न होता।

 © श्री रामदेव धुरंधर

10 / 03 / 2018

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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