श्री हरभगवान चावला
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी – लघुकथा – पगडंडी।)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – अनुगूँज ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
शहर के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में बतौर अंग्रेज़ी प्राध्यापिका श्रीमती साक्षी ने जैसे ही कार्यभार ग्रहण किया, स्टाफ़ सदस्यों के बीच रहस्यमय खुसर-पुसर शुरू हो गई। साक्षी ने कार्यभार संभालते ही विभाग के मुखिया से अपना टाइम टेबल मांँगा और घण्टे भर बाद वह कक्षा में थी।
“कमाल है, यह तो क्लास में गई!” एक प्राध्यापक ने कहा।
“आज ही आई है न, इंप्रेस करना चाहती है। दो-चार दिन में दिखाएगी अपना रंग। वो क्या कहते हैं, रंग लाती है हिना…” स्टाफ़ रूम में एक सामूहिक अट्टहास गूंँजा।
समय बीतता गया, साक्षी ने वैसा कोई रंग नहीं दिखाया, जैसी अपेक्षा की गई थी। उसके चेहरे पर उपायुक्त (कलेक्टर) की पत्नी होने का कोई दर्प नहीं दिखा, न व्यवहार में कोई ठसक। वह अपनी स्कूटी पर आती, नियमित रूप से कक्षाएंँ लेती, स्टाफ़ के सभी सदस्यों से सहज ढंग से बात करती और खूब खुलकर हंँसती। महीने भर में ही वह स्टाफ़ और विद्यार्थियों की सबसे आत्मीय पारिवारिक सदस्य हो गई। लगता था, जैसे बरसों से यहीं हो।
एक दिन वह छुट्टी के आवेदन के साथ प्राचार्य के सामने मौजूद थी। वहीं तीन-चार स्टाफ़ सदस्य भी बैठे हुए थे। प्राचार्य ने आवेदन पढ़कर कहा, “आपके मामा की बेटी की शादी है, उन्हें हम सब की ओर से शुभकामनाएंँ दीजिएगा।”
“जी ज़रूर, शुक्रिया।”
“मुझे एक बात समझ में नहीं आई मैम, सिर्फ़ आधे दिन की छुट्टी ले रही हैं आप? बहन की शादी है, खूब एन्जॉय कीजिए। कितने भी दिन लगें, छुट्टी के बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं मैम!”
“वो कैसे सर?”
“आप मालिक हैं, जब जी चाहे आएंँ, जी न चाहे तो न आएंँ।”
“मालिक न मैं हूंँ, न आप सर। स्कूल के मालिक तो बच्चे हैं। हम सब उनके नौकर हैं, बेहद प्रतिष्ठित नौकर। और आधे दिन की छुट्टी इसलिए एप्लाई की है कि बच्चों की परीक्षा सिर पर है। उन्हें मेरी ज़रूरत है सर!”
प्राचार्य सकपका गए तो पास बैठे एक शिक्षक ने जैसे सफ़ाई सी देते हुए कहा, “सर का मतलब यह था मैम कि उपायुक्त तो ज़िले के मालिक ही होते हैं।”
“उपायुक्त भी नौकर ही होता है सर, मालिक तो जनता होती है।”
“आपके विचार बहुत अलग हैं मैम, पर पिछले उपायुक्त की पत्नी भी क़रीब साल भर तक इसी स्कूल में टीचर थीं। वे एक दिन भी स्कूल में नहीं आईं। स्कूल का क्लर्क दस-पन्द्रह दिन में एक बार उनकी कोठी में जाकर हाज़िरी लगवा आता था। इसीलिए सर कह रहे थे…”
“यह तो बहुत ग़लत है सर! हमें वेतन टीचर होने के नाते मिलता है या उपायुक्त की बीवी की हैसियत से? आपने उन्हें कभी सख़्ती से टोका क्यों नहीं सर?
“मैं क्या टोकता मैम। हैड ऑफिस से आने वाली टीम भी इग्नोर करती थी। दोएक बार मैंने उनसे कहा भी, पर उल्टे उन्होंने मुझे ही चुप रहने की हिदायत दे दी। ऐसे में…”
साक्षी कुछ समय तक चुप बनी रही, फिर कहा, “टीचर को समदर्शी और निष्पक्ष होना ही चाहिए सर। समाज में हमारी प्रतिष्ठा इन्हीं कारणों से होती है। किसी एक व्यक्ति को विशेषाधिकार देने के बाद किसी को कुछ कह पाने का नैतिक आधार हम खो देते हैं। ऐसे में बच्चों को ईमानदारी का पाठ हम कैसे पढ़ा सकते हैं? माफ़ कीजियेगा सर, मैं अगर आप की जगह होती तो उसे स्कूल आने के लिए बाध्य करती, फिर नतीजा चाहे जो होता।”
साक्षी चली गई थी। कई लोगों की मौजूदगी के बावजूद प्राचार्य कक्ष में सन्नाटा था। एक ख़ामोश अनुगूंँज कक्ष में लगातार बनी हुई थी- ‘फिर नतीजा चाहे जो होता…’
© हरभगवान चावला
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈