हिन्दी साहित्य – कविता – अर्जुन सा जनतंत्र…. मायावी षडयंत्र – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
अर्जुन सा जनतंत्र…. मायावी षडयंत्र
अभिलाषाएं अनगिनत, सपने कई हजार
भ्रमित मनुज भूला हुआ, कालचक्र की मार।
दोहरा जीवन जी रहे,सुविधा भोगी लोग
स्वांग संत का दिवस में,रैन अनेकों भोग।
पानी पीते छानकर, जब हों बीच समाज
सुरा पान एकान्त में, बड़े – बड़ों के राज।
यदि योगी नहीं बन सकें, उपयोगी बन जांय
दायित्वों के साथ में, परहित कर सुख पांय।
रामलीला में राम का अभिनय करता खास
मात – पिता को दे दिया, उसने ही वनवास।
सभी मुसाफिर है यहाँ,जाना है कहीं ओर
मंत्री – संत्री, अर्दली, साहूकार या चोर।
लगा रहे हैं कहकहे, कर के वे दातौन
मटमैली सी देहरी, सकुचाहट में मौन।
मोहपाश में है घिरा , अर्जुन सा जनतंत्र
कौरव दल के बढ़ रहे, मायावी षडयंत्र।
बदल रही है बोलियां, बदल रहे हैं ढंग
बौराये से सब लगे, ज्यों खाएं हो भंग।
ठहर गई है जिंदगी, मौन हो गए ओंठ
रुके पांव उम्मीद के, गुमसुम गुमसुम चोट।
भूल गए सरकार जी, आना मेरे गाँव
छीन ले गए साथ मे, मेल-जोल सद्भाव।
शकुनि से पांसे चले, ये सरकारी लोग
तबतक खुश होते नहीं,जबतक चढ़े न भोग।
जब से मेरे गाँव में, पड़े शहर के पांव
भाई चारे प्रेम के, बुझने लगे अलाव।
लिखते – पढ़ते, सीखते, बढ़े आत्मविश्वास
मंजिल पर पहुंचे वही, जिसने किए प्रयास।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’