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हिन्दी साहित्य- कविता – (गंगा) माँ से संवाद – श्री सदानंद आंबेकर - साहित्य एवं कला विमर्श हिन्दी साहित्य- कविता – (गंगा) माँ से संवाद – श्री सदानंद आंबेकर - साहित्य एवं कला विमर्श

हिन्दी साहित्य- कविता – (गंगा) माँ से संवाद – श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(गंगा) माँ से संवाद

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास

हम श्री सदानंद आंबेकर जी  के आभारी हैं इस अत्यंत मार्मिक काव्यात्मक संवाद के लिए जो हमें ही नहीं हमारी अगली पीढ़ी के लिए भी एक संदेश है।  )

बैठे थे गंगा के तीरे शीतल मंद पवन बहती थी,
आओ पथिक शांत हो बैठो, कानों में वह ये कहती थी।
कलरव करते पंछी उड़ते, नभमंडल को जाते थे
जाने किस अनगढ़ बोली में, गीत कहाँ के गाते थे।
मेला लगा हुआ ज्यों तट पर, नर नारी की रेलमपेल
डुबकी लेते छप छप करते, पानी में वो खेले खेल।
जटा खोल कर भस्म लगा कर साधू बाबा ध्यान लगाये
मंदिर में कोई श्रद्धा से, घंटी के संग शंख बजाये।
मन्नत पूरी करने कोई, जल में दीप चढ़ाते थे
तन के संग संग मन धोने को, मल मल खूब नहाते थे।
इस हलचल में, कोलाहल में, बात अनोखी जान पड़ी
ध्यान लगा कुछ शांत हुआ तो, सिसकी मेरे कान पड़ी।
देखा तो माता रोती थी मन की बात बताती है
मैंने पूछा माँ कुछ बोलो कैसी पीर सताती है।
गंगा माता रुक कर बोली कैसा अपना नाता है
बेटा होकर जिसे सताये, वो तो तेरी माता है।
मैंने उसे पलटकर बोला माता कैसी बात करे
करते हैं सम्मान तुम्हारा, तेरी पूजा पाठ करे।
फीकी हंसी संग माँ बोली यह कैसा सम्मान हुआ
मेरा आंचल मैला करता, कैसे दूँगी तुझे दुआ।
बेटे तुम मेरे बच्चे हो पाला पोसा प्यार दिया
इस धरती पर मानवता को, मैंने ही संस्कार दिया।
तुमने की भरपूर उन्नति हर्ष मुझे यूं होता है
वन में रहने वाला बेटा, आज महल में सोता है।
ब्रह्माजी ने भूपर भेजा, सबका तारण करने को
मुझसे पुण्य कमाकर बेटा, छोड़ दिया यूं मरने को।
अपनी सुख सुविधा का कचरा, मेरे आंचल में डाला
मरे पशु  नाली का पानी, सड़े गले फूलों की माला।
देव मूर्तियाँ फटी जूतियाँ सब मुझमें है डाल दिया
नदियाँ कूड़ादान समझ कर, तुमने इस्तेमाल किया।
अपना नीड़ बनाने तुमने, मेरा जंगल काटा है
हर हर करते जल प्रवाह ने, मेरे तट को छाटा है।
जगह जगह पर बांध बनाकर, जल को तुमने रोका है
अति विकास लाता विनाश है, रोक, अभी भी मौका है।
मेरी बाकी बहिनों पर भी तुमने, खूब किए हैं अत्याचार
उनकी भी पीड़ा सुन लो तुम, कर दो उनका भी उद्धार।
अब भी समय बचा है बेटे, बहुत नहीं कुछ बिगड़ा है
तुम विनाश को रोक सको तो, फिर काहे का झगड़ा है।
मैं तो माँ हूँ पर बेटों को, माफ मुझे ही करना है
बेटों की ममता की खातिर, त्याग मुझे ही करना है।
मेरी ताकत कम है बेटा, कब तक ये सब झेलूँगी
दम टूटेगा जिस दिन मेरा, विदा यहाँ से ले लूँगी।
याद रखो मेरे बेटों यह, नदियाँ जिस दिन रूठ गईं
नष्ट हुई मानवता समझो, जीवन धारा टूट गई।
नदियों को सचमुच माँ समझो, माता सा सम्मान करो
माँ की पीड़ा जानो बेटा, मत उसका अपमान करो।
ईश्वर को मत परखो बच्चों, अब भी तुम सब जाग उठो
नदी बचाओ, पेड़ लगाओ, इस कारज में आज जुटो।

©  सदानंद आंबेकर