डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
चलो बुहारें…..
चलो जरा कुछ देर स्वयं के
अंतर में मुखरित हो जाएं
अपने मन को मौन सिखाएं।
जीवन को अभिव्यक्ति देना
शुष्क रेत में नौका खेना
दूर क्षितिज के स्वप्न सजाए
पंखहीन पिंजरे की मैना,
बधिर शब्द बौने से अक्षर
वाणी की होती सीमाएं। अपने मन को…..
बिन जाने सर्वज्ञ हो गए
बिन अध्ययन, मर्मज्ञ हो गए
भावशून्य, धुंधुआते अक्षर
बिन आहुति के यज्ञ हो गए,
समिधा बने, शब्द अंतस के
गीत समर्पण के तब गायें। अपने मन को…..
तर्क वितर्क किये आजीवन
करता रहा जुगाली ये मन
रहे सदा अनभिज्ञ स्वयं से
पतझड़ सा यह है मन उपवन,
महक उठें महकाएं जग को
क्यों न हम बसन्त बन जाएं। अपने मन को…..
कब तक भटकेंगे दर-दर को
पहचानें सांसों के स्वर को
खाली हों कल्मष कषाय से
चलो बुहारें अपने घर को
करें किवाड़ बन्द, बाहर के
फिर भीतर, एक दीप जलाएं। अपने मन को….
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’