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हिन्दी साहित्य- कविता – ‘दिल्ली’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ - साहित्य एवं कला विमर्श हिन्दी साहित्य- कविता – ‘दिल्ली’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ - साहित्य एवं कला विमर्श

हिन्दी साहित्य- कविता – ‘दिल्ली’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

दिल्ली

किसे समझते हैं आप दिल्ली!

जगमगाती ज्योति से नहाए

लोकतंत्र की पालकी उठाए खड़े लकदक

संसद,राष्ट्रपति और शास्त्रीभवन

व्य्यापारिक व कूटनीतिक बाँहैं फैलाए

युद्धिष्ठिर को गले लगाने को आतुर

लोहे के धृतराष्ट्र-से बेचैन

दुनिया भर के राष्ट्रों के दूतावास,

विश्वस्वास्थ्य संगठन,बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय

सर्वोच्च न्यायालय,एम्स और

जवाहर लाल नेहरू विश्वद्यालय

यानी न्याय,स्वास्थ्य,अर्थ और शिक्षा के

नित नए सांचे-ढाँचे, गढ़ते -तोड़ते संस्थान

इतिहास,धर्म,संस्कृति,साहित्य और कला को

छाती पेटे लगाए

लालकिला, कुतुबमीनार, शीशमहल

अक्षरधाम, ज़ामामस्ज़िद, इंडियागेट, चाँदनी चौक

रामलीला मैदान, प्रगति मैदान, ललित कला अकादमी, हिंदी अकादमी, ज्ञानपीठ,

वाणी, राजकमल, किताबघर जैसे

अद्भुत विरासत साधे

स्थापत्य, स्थान और प्रतिष्ठान

आखिर किसे समझते हैं आप दिल्ली !

 

कल-कारखानों का विष पीती-पिलाती

काँखती,कराहती बहती

काली-कलूटी कुब्जा यमुना

दिल्ली और एन सी आर के बीचोबीच

अपने पशुओं के लिए घास ढोती

उपले थापती आधी दुनिया

माने औरत जाति

आखिर किसे कहते हैं आप दिल्ली!

 

मिरांडा हॉउस, लेडी श्रीराम कॉलेज में

किताबों में सर गाड़े

या किसी पब्लिक स्कूल के पीछे वाले भूभाग में

बड़े पेड़ या झाड़ की आड़ में स्मैक के आगोश में

छिपके बैठी होनहार पीढ़ी

रेडलाइट इलाके में छापे मारती हाँफती भागती पुलिस

पंचतारों में बिकने को आतुर किशोरियाँ

और उनको ढोते दलाल

बोलो! किसे पुकारेंगे आप  दिल्ली?

 

ओला, ऊबर को चलते-चलते बुक करती

मालों में काम को सरपट जाती लड़कियाँ

मेट्रो, बस या बाज़ार में

पर्स और मोबाइल मारते  जेबकतरे

चिचिलाती धूप और शीत लहर में

पानी की लाइन में खड़े बच्चे-बूढ़े और अधेड़

क्या ये भी नहीं है दिल्ली?

 

संघ लोक सेवा आयोग की अग्नि परीक्षा में

घर-बार की होलिका जलाए

ककड़ी-से फटे होठों को चाटते

कोचिंगों की परिक्रमा करते तरुण

क़र्ज़ में डूबे किसान-से

चिंताओं के पहाड़ के साथ

अपना स्ववृत्त लादे रोज़गार खोजते युवा

चौराहों पर बाबू जी !बाबू जी !

चिल्लाते सहमे हुए पास आते

झिड़कियां खाकर भी हाथ बाँधे

आशा में खड़े मज़दूर

इनमें सबके सब दिल्ली  के भले न हों

पर इन में भी  खोज  सकते हैं आप दिल्ली।

 

दिल्ली सिर्फ जन प्रतिनिधियों की आबादी नहीं है

बीमारी से बचे पैसों से साग सब्जी लाते

आम आदमियों के हिस्से में भी है

कुछ दिल्ली

इसे धृतराष्ट्र के हवाले किया तो

हस्तिनापुर के झगड़े में

निर्वस्त्र हुई द्रोपदी -सी

हाहाकारी हो सकती है दिल्ली

बारबाला भी नहीं है दिल्ली

जो सुरा परोसे और मुस्काए

और, किसी नगर सेठ की जंघा पर बैठ जाए

दिल्ली सिर्फ और सिर्फ़ सफ़ेद खादी नहीं है

दिल्ली बहुत कुछ स्याह भी है

उसके बरक्स

मलमली रंगीनियाँ भी हैं दिल्ली में।

दिल्ली में कुछ के ही होते हैं हफ्ते में पाँच दिन

बाक़ी के हिस्से में चौबीस घंटों वाला

सात दिन का ही है सप्ताह

क्या सोचते हैं दिल्ली के बारे में आप!

 

धक्कामुक्की हो सकती है मेट्रो और बसों में

पर केवल भीड़ भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में कोई पूछ भी सकता है

परिवार के हाल-चाल और नहीं भी

एकांत में थाम सकता है कोई हाथ

अपना सकता है जीवन भर के लिए

पल में छूट  सकता है कोई हाथ

पुकारने पर दूर -दूर तक नहीं दिख सकती है

कोई आदम की छाया भी

लेकिन दिल्ली निर्जन भी  नहीं है

डियरपार्क में बतकही हो सकती है

विश्वनाथ त्रिपाठी से

किसी आयोजन में मिल सकते हैं

नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डे

हरनोट और दिविक रमेश

‘काला पहाड़’ लादे रेगिस्तान की रेत

फाँकते आए मोरवाल

या उसे धकेलते

देश के कोने-कोने से आए

कई साहित्यकार छोटे-बड़े  गुट में

यानी निर्गुट भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में दल हैं दलों के कीचकांदो से उपजे

जानलेवा दलदल भी हैं दिल्ली में

नेता,अभिनेता,व्यापारी,चोर,दिवालिया,साहित्यकार

नाटककार,साहूकार हो या फिर चोर छिनार,

दिल्ली में बसना सब  चाहते हैं

लेकिन बसाना कोई नहीं चाहता है दिल से

किसी को अपनी -अपनी दिल्ली में

बसाने को बसाते भी हैं जो नई दिल्ली

वे बस संख्या लाते हैं दिल्ली में

इनमें केवल साहित्यकार ही नहीं हैं

जो बनाने को मठ

उदारतावश ढोते रहे हैं यह संज्ञाविहीन संख्या

ला-ला के भरते रहे हैं

अपना गाँव,देश-जवार बाहर-बाहर से

गुडगांवा,गाज़ियाबाद,फरीदाबाद वाली दिल्ली में

शकूर और दयाबस्ती में

नेता भी कुछ कम नहीं हैं इनमें अग्रणी

कौन पूछे कि किस वजह से

आधे से ज़्यादा नेता और साहित्यकर ही

बसते हैं हमारी दिल्ली में?

आपको भी बनना है कुछ तो आ जाओ दिल्ली

छानो ख़ाक

किसी का लंगोट छाँटो या पेटीकोट

शर्माओ मत

कविता हो या राजनीति

सब गड्डमड्ड कर डालो

बढ़ो आगे

गढ़ो नए प्रतिमान

जिसमें कुछ न हो उसमें ही सबकुछ दिखाओ

और सबकुछ वाली पांडुलिपि को कूड़ा बताओ

तभी तो तुम्हारा प्रातिभ दरसेगा

सर्जक यदि कुबेर हुआ तो धन यश सब बरसेगा

और जब कुछ हो जाओ तो फिर देर मत लगाओ

गुट बनाओ जैसे बनाया था तुम्हारे गुरु ने

सबसे पहले उसी को पटखनी दो

जिसका छांटा है दिन-रात लंगोट

फिर क्या है

मज़े से शराब पी-पीकर जिस-तिस को गरियाओ

पगुराओ गंधाती आत्म कथा

यह भी इसी दिल्ली की एक हृष्ट-पुष्ट यानी

स्वस्थ ,साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा है।

खैर छोड़ो!यह तो रही हमारी अपनी बताओ

आखिर आप किसे मानते हैं दिल्ली!

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’