हिन्दी साहित्य – कविता – * नव कोंपलें * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

नव कोंपलें

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  नारी हृदय  की संवेदनाओं को उकेरती एक विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘नव कोपलें ’)

 

काश!वह समझ पाता

अपनी पत्नी को शरीक़े-हयात

जीवन-संगिनी सुख-दु:ख की

अनुभव कर पाता

उसके जज़्बातों को

अहसासों,आकांक्षाओं

तमन्नाओं व दिवा-स्वप्नों को

 

वह मासूम

जिस घर को अपना समझ

सहेजती-संजोती,संवारती

रिश्तों को अहमियत दे

स्नेह व अपनत्व की डोर में पिरोती

परिवारजनों की आशाओं पर खरा

उतरने के निमित्त

पल-पल जीती,पल-पल मरती

कभी उफ़् नहीं करती

अपमान व तिरस्कार के घूंटों का

नीलकंठ सम विषपान करती

 

परन्तु सब द्वारा

उपयोगिता की वस्तु-मात्र

व अस्तित्वहीन समझ

नकार दी जाती

 

कटघरे में खड़ा कर सब

उस पर निशाना साधते

व्यंग्य-बाणों के प्रहार करते

उसकी विवशता का उपहास उड़ाते

वह हृदय में उठते ज्वार पर

कब नियंत्रण रख पाती

 

एक दिन अंतर्मन में

दहकता लावा फूट निकलता

सुनामी जीवन में दस्तक देता

वह आंसुओं के सैलाब में

बहती चली जाती

और कल्पना करती

बहुत शीघ्र प्रलय आयेगा सृष्टि में

और सागर की गगनचुंबी लहरों में

सब फ़नाह हो जायेगा

अंत हो जायेगा असीम वेदना

असहनीय पीड़ा व अनन्त दु:खों का

उथल-पुथल मच जायेगी धरा पर

सब अथाह जल में समा जायेगा

 

फिर होगी स्वर्णिम सुबह

सूर्य की रश्मियों से

सिंदूरी हो जायेगी धरा

नव कोंपलें फूटेंगी

अंत हो जायेगा स्व-पर

राग-द्वेष व वैमनस्य का

समता,समन्वय

सामंजस्य और समरसता

का साम्राज्य हो जायेगा

नव जीवन मुस्करायेगा