हिन्दी साहित्य – कविता – नाखुश-खुश। – श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा
नाख़ुश-ख़ुश। 
ज़िंदगी में बहुत है ऐसा कुछ
जो है नाख़ुश
लेकिन बहुत कुछ और भी है
अनचीन्हा अलसाया सा
अनदेखा लावारिस ख़ुश
छिटका हुआ
नज़र की अयाल पर
समय के भाल पर।
ज़िंदगी मियादी जमा में
बढ़ती रक़म का अंबार तो नहीं,
जिलेटिंन में सजी दवाइयों
की गिनतियों का जोड़ तो नहीं,
सुई की नौक पर
सहमा अहसास तो नहीं
सिमट जाएँ जिसमें सांसें
उलझ जाए दिमाग़
सूख जाएँ रिश्ते
छीज जाए सृजन
देखो नज़र डाल कर।
बहती हवा, उड़ते परिंदे, बहते झरने
रिमझिम बारिश की बूँदें
दोस्तों के ठहाके, रिश्तों की महक
बिछड़ों की कसक
पुराने गानों की महीन धुन
साँसों में घुली सुबह की ख़ुश्बू
दिन भर की थकान
शाम के धुँधलके की उदासी
रात की जागती हुई बेचैनी
अच्छी नींद के बाद का सुकून
पेट में पैदा होती अच्छी भूख
परस में आते गरम-गरम फुल्के
मनपसंद सब्ज़ी का पहला कौर
ऐसे कई हैं जीवन के ठौर
हमारे अहसास के भूखे
जिनके सायों में छुपे मर्म
वो देखो ठिठके से खड़े हैं
दिल की दहलीज़ पर
जकड़ लो उन्हें भींच कर।
© सुरेश पटवा