श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)
☆ संजय दृष्टि – वह – 2☆
माँ सरस्वती की अनुकम्पा से *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज
सात
वह नाचती है
आग सी,
यह आग
धौंकनी सी
काटती जाती है
सारी बेड़ियाँ।
आठ
वह गुनगुनाती है
झरने सी,
यह झरना
झर डालता है
सारा थोपा हुआ
और बहता है
पहाड़ से
मिट्टी की ओर।
नौ
वह करती है श्रृंगार
इस श्रृंगार से
उभरता है
व्यक्तित्व,
उमड़ता है
अस्तित्व।
दस
वह लजाती है,
इस लाज से
ढकी-छुपी रहती हैं
समाज की कुंठाएँ।
ग्यारह
वह खीझती है,
इस खीझ में
होती है तपिश
सर्द पड़ते रिश्तों को
गरमाने की।
बारह
वह उत्तर नहीं देती,
प्रश्न जानते हैं
उत्तर आत्मसात
रखने की उसकी क्षमता,
प्रश्न निरुत्तर हो जाते हैं।
तेरह
वह सींचती है
तुलसी चौरा,
जानती है
शालिग्राम को
बंधक बनाने की कला।
चौदह
वह बनाती है रसोई,
देह में समाकर
देह को अस्तित्व देकर
देह को सिंचित-पोषित कर
वह गढ़ती है अगली पीढ़ी।
वह सींचती है तुलसी चौरा…जानती है शालिग्राम को बंधक बनाने की कला…
और- सब कुछ जानते हुए भी शालिग्राम बनते है बंधक…बहुत ख़ूब!
धन्यवाद आदरणीय।
‘वह’ विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति-अभिनंदन संजय जी।
धन्यवाद अलका जी।
वह गढ़ती है अगली पीढ़ी….. सुंदर अभिव्यक्ति! स्त्री के व्यक्तित्व को शब्दों की तूलिका से निखारा है, उबारा है।
धन्यवाद ऋता जी।
धन्यवाद अलका जी।