श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)
☆ संजय दृष्टि – वह – 3 ☆
माँ सरस्वती की अनुकम्पा से *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज
पन्द्रह
वह जलाती है
चूल्हा..,
आग में तपकर
कुंदन होती है।
सोलह
वह परिभाषित
नहीं करती यौवन को
यौवन उससे
परिभाषित होता है,
वह परिभाषा को
यौवन प्रदान करती है।
सत्रह
वह जानती है
बोलते ही ‘देह’
हर आँख में उभरता है
उसका ही आकार,
आकार को मनुष्य
बनाने के मिशन में
सदियों से जुटी है वह!
अठारह
वह मांजती है बरतन
चमकाती है बरतन,
धरती को
महापुरुषों की चमक
उसी के बूते मिली है।
उन्नीस
वह बुहारती है झाड़ू
सारा कचरा
घर से निकालती है,
मन की शुचिता के सूत्र
अध्यात्म को
उसी ने दिये हैं।
© संजय भारद्वाज , पुणे
9890122603
विधाता के बाद अव्वल नंबर का निर्माण “वह” ही करती है।
“आकार को मनुष्य बनाने के मिशन में सदियों से जुटी है वह”!
लाज़वाब!
विजया टेकसिंगाना
धन्यवाद विजया जी।
स्त्री शक्ति की अनूठी दास्तान। आपके नजरिये को प्रणाम!
धन्यवाद लतिका जी।
शक्ति की सुंदर परिभाषा …
धन्यवाद वीनु जी।