श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – बेटा ⌚

(लगभग छह वर्ष पहले लिखी एक लघुकथा साझा कर रहा हूँ। – संजय भारद्वाज )
“…डाकबाबू कोई पाती आई के?’…दूर शहर बसे बेटे को अपनी बीमारी के अनेक संदेश भेज चुका कल्याण आशंकित संभावना से पूछता….! डाकबाबू पुराने परिचित थे। कल्याण के दुख को समझते थे। चिट्ठियों पर ठप्पा मारते-मारते सिर उठाकर कहते-“काकाजी बोळी चिंता करो…शहर खूब दूर है, सो उत्तर आबा मे भी टेम लागसि..’, दोनो फीकी हँसी हँस देते।
ये सिलसिला पिछले तीन-चार साल से चल रहा था। डाकबाबू जानते थे कि चिट्ठी शायद ही आए। बरसों से डाक महकमे की नौकरी में थे, अच्छी तरह से मालूम था कि हर गाँव, ढाणी में एकाध कल्याण तो रहता ही है। वैसे जानता तो कल्याण भी था कि उसकी भेजी चिट्ठियों ने पदयात्रा भी की होगी तो भी अब तक सब की सब पहुँच चुकी होंगी, पर मन था कि मानता ही नहीं  था।
बेटे को देखने की चाह कल्याण के भीतर हर दिन प्रबल होती जा रही थी,”आँख मूँदबा से पेलि एक बार ओमी ने देख लेतो तो..’..”ठाकुरजी, एक बार तो भेज द्‌यो ओमी ने’, रात सोने से पहले वह रोज ठाकुरजी से प्रार्थना करता।
संतान से मिलने की इच्छा में कई रात बिना नींद निकालने के बाद एक रोज सुबह-सुबह कल्याण डाकबाबू के पास पहुँच गया…”काकाजी चिट्ठी आसि तो म्है खुद ही…’, ….. “ना-ना वा बात कोनी’…”फेर?’..”एक बिनती है’..बिनती नहीं, थे तो हुकम करो काकाजी’..”ओमी ने एक तार भेजणूँ है’…”तार? के बात है, सब-कुशल मंगल है न?’…..आशंका के भाव से पूछते-पूछते डाकबाबू ये भी सोच रहे थे कि कल्याण अकेला रहता था। परिवार में दूर बसे बेटे के अलावा कोई नहीं, फिर अमंगल समाचार होगा भी तो किसका?’
तार का कागज़ हाथ में लेकर कल्याण ने कातर भाव से डाकबाबू से कहा,”बाबूजी लिख द्‌यो ना!’…”काकाजी थे तो..?’..डाकबाबू जानते थे कि कल्याण पुराने समय के तीसरे दरजे की पढाई किए हुए है, टूटी-फूटी भाषा में ओमी को चिट्ठी भी खुद ही लिखता था। हाँ अंग्रेजी में केवल पता डाकबाबू से लिखवाता था। कारण जानना चाहते थे पर कल्याण की आँखों के भाव देखकर पूछने की हिम्मत नहीं कर सके। ..”बोलो के लिखूँ?’…”लिखजो कि ओमी, थारो बाप मरिग्यो है, फूँकबा ने जल्दी आ…बरफ पे लिटा रख्यो है..”काकाजी..?’..”भेज द्‌यो बाबूजी, मेरी मोत पे तो ओमी शरतिया आ ही लेगो’…डाकबाबू को समझ नहीं आया कि तार किसके नाम से भेजें,  कुछ विचार कर आखिर उन्होंने अपने ही नाम से तार भेज दिया।
तार का असर हुआ। अगले ही दिन गाँव के डाकघर में शहर से चार सौ रुपए का तार-मनीऑर्डर आया। ओमी ने लिखा था,..”बाप तो मर ही गया है, तो अब मैं भी आकर क्या कर लूँगा,… गाँवराम ही उसे फूँक दें। कुल मिलाकर दो-ढाई सौ का खर्च आएगा, चार सौ रुपए भेज रहा हूँ ..।’ तार पढ़कर कल्याण देर तक शून्य  में घूरता रहा। वह डाकबाबू से एम.ओ. लिए बिना ही लौट गया।
जल्दी सुबह उठनेवाले कल्याण का दरवाज़ा अगले दिन सूरज चढ़ने तक खुला नहीं था। पड़ोसियों ने ठेला तो दरवाज़ा भड़ाम से खुल गया। अंदर झाँका, देह की सिटकनी खोलकर आत्मा परलोक सिधार चुकी थी। निश्चेष्ट देह के पास दो लिफाफे रखे थे। एक में ढाई सौ रुपए रखे थे, लिफाफे पर लिखा था- “मुझे फूँकने का खर्च’….दूसरे में डाकबाबू के नाम एक पत्र था, लिखा था-“बाबूजी ओमी को तार मत करना…!’
संवेदना बनी रहे, संवेदना बची रहे। 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

23.4.2013

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

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दिलीप पांडे

बहुत ही प्रासंगिक। आज अपने बच्चों को विदेश में भेजने की होड़ में हम उन्हें खोते जा रहे हैं।

दिलीप पांडे

बहुत ही प्रासंगिक।आज अपने बच्चों को विदेश भेजने की होड़ में हम उन्हें खोते जा रहे हैं।पाश्चात्य संस्कृति ने हमारी ने हमारी ताकतों को अपनाना शुरू कर लिया है और हम उनकी कमजोरियों को अपना रहे हैं!

लतिका

आज का चौंकाने वाला सच। हमें बच्चों से हमेशा बात करनी चाहिये। किसी के साथ ऐसा न हो।

Ramhit yadav

युगबोध से जुड़ी सार्थक रचना।

वीनु जमुआर

वर्तमान समय की विडम्बना …

ऋता सिंह

उफ़!!भीतर तक वेदना से तर हो गई। शहर क्या ,गाँव क्या आज की पीढ़ी शायद ऐसी ही है।

पूर्णिमा पांडेय

अत्यंत मार्मिक रचना। सचमुच संवेदना बची रहे तभी रिश्ते बचेंगे वरना साँसे तो बनी रहेंगी पर उनमें जीवन नहीं बचेगा।

शिवप्रकाश गौतम

शहर तो पेड़ से टूटे बेजान पत्ते हैं श्रीमान,
जड़े तो आज भी उस पेड़ की गाँव में बसती हैं।
भावना शुन्य व्यक्ति कभी जीवित हो ही नहीं सकता, आज के परिवेश में रिश्तों से ज्यादा महत्व पैसो का बढ गया हैं, इसका आत्म परिक्षण करना जरूरी हैं।
कहानी से यही सीख मिलती हैं, बहुत बहुत बधाई।