श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ⌚

उहापोह में बीत चला समय

पाप-पुण्य की परिभाषाएँ

जीवन भर मन मथती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

इक पग की दूरी पर था जो

आजीवन हम पा न सके वो

पग-पग सांकल कसती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

जाने कितनी उत्कंठाएँ

जाने कितनी जिज्ञासाएँ

अबूझ जन्मीं-मरती गईं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

सीमित जीवन, असीम इच्छाएँ

पूर्वजन्म, पुनर्जन्म की गाथाएँ

जीवन का हरण  करती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

साँसों पर  है जीवन टिका

हर साँस में इक जीवन बसा

साँस-साँस पर घुटती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

अवांछित ठुकरा कर देखो

अपनी तरह जीकर तो देखो

चकमक में आग छुपी रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं.!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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ऋता सिंह

सच है वर्जनाँ द्वार बंद करती हैं।कवि ने सुंदरता से अभिव्यक्ति दी है। मनुष्य अपनी तरह से जीने से चूकता है।

Sanjay Bhardwaj

हृदय से धन्यवाद ऋता जी।

आशुगुप्ता

वर्जनायें जीवन का रुख मोड़ देती है और हम अक्सर वांछित से अवांछित की ओर मुड़ जाते हैं। जीवन-सत्य को दर्शाती रचना।

लतिका

स्वछंद, निर्मलता को बढावा देती रचना।

शिवप्रकाश गौतम

ईस रचना पर निशब्द हूँ, मित्र।
कहा से लाऊँ वो शब्द जिसमें इस रचना पर प्रतिक्रिया दी जा सकती हैं। बस…….. इतना कहता हूँ की शब्दों के जादूगर हो आप।

डॉ ऋचा शर्मा

बहुत खूब

वीनु जमुआर

पग-पग सांकल कसती रही वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… / अपनी तरह जी कर तो देखो…
सोचने पर मजबूर करती कविता… बेहद अर्थ पूर्ण रचना!