हिन्दी साहित्य – कविता – मैं दीपक था – डॉ.राजकुमार “सुमित्र”
डॉ.राजकुमार “सुमित्र”
मैं दीपक था
मैं दीपक था किंतु जलाया
चिंगारी की तरह मुझे
इतना बहकाया है तुमने
छल लगती है सुबह मुझे ।
तुमने समझा हृदय खिलौना
खेल समझ कर छोड़ दिया
कभी देवता सा पूजा तो
कभी स्वप्न-सा तोड़ दिया ।
जन्म मृत्यु की आंख मिचौनी
और ना अब मुझसे खेलो
बहुत बहुत पीड़ा तन मन की
कुछ मैं ले लूं कुछ तुम झेलो।
© डॉ.राजकुमार “सुमित्र”