सुश्री मीनाक्षी भालेराव
वैलेन्टाइन डे
(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की वैलेन्टाइनडे पर एक मार्मिक एवं भावप्रवण विशेष कविता।)
मैं नहीं जान सकी
कि
पहली ही मुलाकात में
आखिर, इन्होंने मुझे
काँटों भरा गुलदस्ता
दिया ही क्यों ?
वह मेरी उँगलियों में चुभ गया
और
मेरी सिसकी निकल गयी।
किन्तु,
इन्होंने मेरी तरफ देखा भी नहीं
और न ही कोशिश की
मेरे आँसू पोंछने की।
मुझे बहुत बुरा लगा।
इन चंद मिनटों में ही
मैंने बहुत ही कठोर भावना बना ली
उनके प्रति।
मुझे गुस्से में तिलमिलाते देख
वे बोले
जाना चाहती हो
तो जाओ।
मुझसे आईन्दा नहीं मिलना चाहती हो
तो मत मिलो।
किन्तु,
क्या तुम यह नहीं जानना चाहोगी
कि मैंने ऐसा किया ही क्यों ?
मैने गुस्से और नफ़रत भरे
अन्दाज़ से उन्हें देखा
किन्तु,
कुछ बोल न सकी।
वे उठकर चल दिए
मैं सहम गई
और साहस करके उनसे कहा
ठीक है,
बताईये
आपनें ऐसा किया ही क्यों ?
वे थोड़ी देर चुप रहे
मेरी आँसू भरी आँखों में देखा
विचलित हुये,
किन्तु,
चेहरे पर नहीं आने दिये, वे भाव
फ़िर आहिस्ते से बोले –
मेरे साथ,
मेरी जिंदगी में आने के बाद
शायद,
न जाने कितनी दफा तुम्हें
चुभ सकते हैं
ऐसे ही कुछ काँटे ?
क्या पता,
चलना पड़े
ऐसी ही काँटों भरी राहों पर भी ?
अगर,
तब तुम चली गई
मुझे छोड़ कर
तो
शायद मैं बर्दाश्त न कर पाऊँ!
अगर,
तुम आज चली जाती
तब भी मैं तुमसे करता
ताउम्र खामोश मुहब्बत
किन्तु,
कभी भी न कहता
तुम्हें जबरन मेरा साथ देने।
इतना सुनते ही
मैं जोर-जोर से रोने लगी।
हमें देखने लगे।
आसपास के सभी लोग।
मैं उठी
और
उनसे जा लिपटी।
सच कहती हूँ
हम दोनों
जिंदगी की
हर उस सड़क से गुजरे हैं,
जिस पर
सिर्फ और सिर्फ काँटे थे।
लोगों की नजरों में
हमारे जख्मी हालात पर
सहानुभूति की जगह
नमक छिड़कना
और
हमारा तिरस्कार करना निहित था।
किन्तु,
हम चलते रहे
एक दूसरे का हाथ पकड़कर।
सहलाते रहे
एक दूसरे के घावों को।
आज उस बात को
अट्ठाईस वर्ष हो गए हैं।
किन्तु,
आज भी
हर वैलेन्टाइन डे के दिन
ये मुझे देते हैं गुलदस्ता
वैसा ही
और
मैं हँस कर ले लेती हूँ
फिर
धन्यवाद देती हूँ उन्हें
आने के लिए
मेरी अपनी जिन्दगी में !
© मीनाक्षी भालेराव, पुणे
शुक्रिया सर जी बहुत-बहुत शुक्रिया मुझे साहित्य और कला विमर्श में स्थान देने के लिए
Very Nice