हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ क्या तुम समझते हो? ☆ – सुश्री मीनाक्षी भालेराव

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

☆ क्या तुम समझते हो? ☆

(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी  का स्त्री पर  एक  हृदयस्पर्शी एवं भावप्रवण  कविता।) 

 

क्या तुम समझते हो

स्त्री होने का दुःख ?

नहीं तुम नहीं समझ सकते

तुम्हें अपने पुरूष होंने

का बहुत अभिमान है।

सदियों दर सदियों तक

तुम नहीं बदलोगे ।

क्या तुम एक दिन के लिए

केवल एक दिन के लिए

स्त्री बनना चाहोगे ?

देखना चाहोगे

महिने के वो सात दिन

किस पीड़ा से गुजरती है ?

जीना चाहोगे संस्कारों के नाम पर

शोषित होकर

क्या तुम एक संतान को जन्म देकर

नौ महीने का अनुभव करना चाहोगे?

क्या एक दिन तुम चारदिवारी में

बंद रहकर सब की

देखभाल करना चाहोगे

सबकी इच्छाओ की पूर्ति के लिए

अपनी इच्छाओं को रौंध पाओगे?

 

स्त्री होने के लिए

अहिल्या सा पत्थर होना पड़ता है

मोक्ष के नाम पर ठोकरों में रहना पड़ता है

द्रौपदी सा चीरहरण सहना पड़ता है

गली गली दुर्योधन भटकते हैं

जो औरत को भोग समझते हैं

झेलना पड़ता है गांधारी सा अंधापन।

 

सास -ससुर, पति की महत्वाकांक्षों के कारण

अपना ममत्व गिराना पड़ता है

सिर्फ और सिर्फ पुरूष संतान को जीवित रखने के लिए

कितनी बच्चियों को कुर्बान होना पड़ता है

जिन्हें पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है

फिर भी उजड़ी कोख लिए जीना पड़ता है

कितनी अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है

सिया सा आत्मा के जंगलों में भटकना पड़ता है

क्या तुमने दी है कभी अग्नि परीक्षा

सावित्री सा तपस्वी होना पड़ता है

मृत्यु तक को हारना पड़ता है

क्या कभी तुम अपनी सहचरी के लिए

लड़े हो मौत से नहीं तुम तो अपने अहंकार

क्षणिक भूख के लिए स्त्री का शरीर ही नहीं

आत्मा तक  छिन्न-भिन्न कर देते हो

फेंक देते हो मरने के लिए उसका जिस्म तार-तार कर के

और अपने होने पर गर्व करते हो

क्या है तुम्हारे पास गर्व करने जैसा कुछ है?

 

जब भी इस बात से भ्रमित हो कि तुम

संसार की सबसे श्रेष्ठ कृति हो

तो जाकर अपनी माँ से लिपट जाना

जब तुम्हें लगे कि माँ की गोद से बढ़कर कोई जगह

या सुखद अहसास दुसरा नहीं है

तो स्त्री का महत्व जीवन में ही नहीं

संसार में क्या होता है समझ लोगे

तब तुम सही मायने में

पुरूष कहलाओगे ।