हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ गुल्लक ☆ – सुश्री मीनाक्षी भालेराव
सुश्री मीनाक्षी भालेराव
(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की एक भावप्रवण कविता।)
☆ गुल्लक ☆
ख़रीद कर लाईं थी
बचपन में एक सुंदर सा
मिट्टी का गुल्लक
मेले से।
घर लाकर सजा दिया था
एक अलमारी पर
और निहारा करती थी रोज
पर कभी उसमें कुछ
डाला नहीं ।
माँ ने कई बार पूछा
क्यों इसमें
कुछ डालती नहीं बेटा ?
मैं कहती माँ मैं इसमें
पैसे नहीं डालूंगी,
कुछ और डालूंगी।
माँ ने सोचा बच्ची है
खेलने दो गूलक से ।
पिता जी ने हमेशा
सिखाया था
अपने स्वाभिमान को
हमेशा बनाएँ रखना।
अगर एक बार
आपका स्वाभिमान
मर गया,
तो
कभी जिन्दा नहीं हो सकता ।
तब मेरे छोटे से
मस्तिष्क में
ये बात
घर कर गई थी
कि स्वाभिमान
बहुत बड़ी दौलत है
उस दिन से मैने
थोड़ा-थोड़ा
स्वाभिमान इकट्ठा करना
शुरू कर दिया।
रोज़ उस गुल्लक में
थोड़ा-थोड़ा स्वाभिमान
डालने लगी,
डालने लगी अपनी
महत्वाकांक्षा के सिक्के
पर हमेशा खयाल रखा
कि कहीं मेरी महत्वाकांक्षा के सिक्कों से
स्वाभिमान से भरा गुल्लक
टूट न जाए।
इसलिए
आज तक वो मेरे पास है
वो मेरा प्यारा गुल्लक।
मैंने उसे टूटने नहीं
दिया है
आज भी मैं ध्यान रखती हूँ
महत्वाकांक्षाओ के नीचे
गुल्लक में
कहीं मेरा
स्वाभिमान दब कर
न मर जाए।
इसलिए हर रोज आज भी
डाल देती हूँ
थोड़ा-थोड़ा स्वाभिमान ।
© मीनाक्षी भालेराव, पुणे